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________________ अथ द्वितीयो विवेकः अथ 'नाटक' प्रकरणं च' इत्यतो नाटक' लक्षयित्वा प्रकरणं लक्ष्यतेअथ नाट्यदर्पण - दीपिकायां द्वितीयो विवेकः । विवेक - सङ्गति प्रथम विवेकके प्रारम्भमें तीसरी तथा चौथी कारिकामें ग्रन्थकारने बारह प्रकार के रूपकों का उद्देश्य अर्थात् नाममात्रेण कथन किया था। उनमें सबसे पहिला स्थान 'नाटक' का और उसके बाद दूसरा स्थान 'प्रकरण' का था । इसलिए प्रथम विवेकके शेष भाग में नाटकके लक्षरण श्रादिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया था। मुख्यरूपसे नाटकका ही विवेचन होने से प्रथम विवेकका नाम ग्रन्थकारने 'नाटक-निर्णय' रखा है । रूपकोंमें नाटक ही सबसे मुख्य है इसलिए उसके लक्षण प्रादिका विस्तारपूर्वक विवेचन करनेमें एक पूरा विवेक (अध्याय) लगाया गया है । अब इस द्वितीय विवेकमें प्रकरण प्रादि शेष ग्यारह प्रकार के रूपक भेदों का विवेचन किया जाएगा। इसलिए ग्रन्थकारने इस 'विवेक' का नाम 'प्रकरणाचेकादशरूपकनिर्णय:' रखा है । इन शेष एकादश रूपकों में प्रथम और सबसे मुख्य स्थान 'प्रकरण' का है । इसलिए इस विवेकका आरम्भ प्रकरण के निरूपण से ही करते हैं । [सूत्र ११७] 'नाटकं प्रकरणं च' इस [रूपक भेवोंका उद्देश्य अर्थात् नाममात्रसे करने वाली कारिकामें गिनाए हुए रूपकभेदों] मेंसे [प्रथम विवेकमें प्रथम रूपक भेद ] नाटकका लक्षरण करके [ द्वितीय रूपक भेव] अब 'प्रकरण' का लक्षरण करते हैं 'प्रकरण' का लक्षण 'प्रकरण' का लक्षण करते हुए ग्रन्थकार मुख्य रूपसे 'नाटक' से उसके भेदों का प्रदर्शन करेंगे । 'समानासमानजातीयव्यवच्छेदो हि लक्षणार्थ:' इस नियमके अनुसार समान जातीय तथा असमान जातीयसे भेद करना ही 'लक्षण' का प्रयोजन है । इसलिए 'प्रकरण' का लक्षरण करते समय उनके समान जातीय 'नाटक' से भेद दिखलाना श्रावश्यक है । इस भेदप्रदर्शनके द्वारा ही 'प्रकरण' का लक्षण पूर्ण बनता है । अतः 'प्रकरण' का लक्षरण करने वाली इन दो कारिकाओं में 'नाटक' से उसका भेद दिखलाते हुए ही 'प्रकरण' का लक्षण किया गया है । 'नाटक' से 'प्रकरण' का मुख्य भेद कथावस्तुके स्वरूपके विषय में है । 'नाटक' की आख्यानवस्तु इतिहास प्रसिद्ध होती है । किन्तु 'प्रकरण' की श्राख्यान वस्तुमें कल्पनाकी प्रधानता रहती है । नाटक 'ख्याताद्यराजचरितं पूर्ववर्ती इतिहास प्रसिद्ध राजानोंके चरित को प्रस्तुत करता है किन्तु 'प्रकररण' 'कल्प्यनेतृ-फल- वस्तूनां' कल्पित नेता, फल तथा वस्तु के प्राधारपर स्थित होता है । इनका दूसरा भेद यह है कि 'नाटक' राजचरितपर भवसम्बित होता है तो 'प्रकरण' वणिक्, विप्र, अथवा सचिव चरित्रोंके प्राधारपर निर्मित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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