SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० ६६-६७, सू० ११७ ] द्वितीयो विवेक : [ २०३ प्रकर्षेण क्रियते कल्प्यते नेता फलं वस्तु वा समस्त-व्यस्ततयाऽत्रेति 'प्रकरणम्। प्रसिद्धत्वात् लक्ष्यमनूय लक्षणं विधीयते । वाणिजः क्रय-विक्रयकृतः । विप्राः षट्कर्माणः । सचिवो राज्यचिन्तकः । अयं वणिग-विप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त-धीरप्रशान्तौ प्रकरणे नेतारौ भक्त इति प्रतिपादनार्थ पृथगुपात्तः । यस्त्वमात्यं नेतारमभ्युपगम्य धीरप्रशान्तनायकमिति 'प्रकरणं' विशेषयति स वृद्धसम्प्रदाय-वन्ध्यः । सातवां भेद उन तीनोंके कल्पित होनेपर बनेगा। इस प्रकार 'प्रकरण' के सात भेद हो जाते हैं। इसको और अधिक स्पष्ट करने के लिए इन भेदोंको निम्न प्रकार दिखलाया जा सकता है: एकके कल्पित होनेपर तीन भेद : १. केवल नायकके कल्पित होनेपर प्रथम भेद । २. केवल फलके कल्पित होनेपर द्वितीय भेद । ३. केवल पाख्यान-वस्तुके कल्पित होनेपर तृतीय भेद । दो-दो के कल्पित होनेपर तीन भेद : ४. नायक और फलके कल्पित होनेपर चतुर्थ भेद । ५. नायक और वस्तुके कल्पित होनेपर पञ्चम भेद । ६. फल और वस्तुके कल्पित होनेपर षष्ठ भेद । तीनोंके कल्पित होनेपर एक भेद : नायक, फल, तथा वस्तु तीनोंके कल्पित होनेपर सप्तम भेद । इस प्रकार 'प्रकरण' के सात भेद दिखलाए माने गए हैं। इनमें से जहाँ नायक, फल, तथा भाख्यान-वस्तु तीनों कल्पित होते हैं वह 'प्रकरण' सर्वथा कल्पित होता है। जहां एक या दोकी कल्पना की जाती है वहाँ शेष दो या एक भाग इतिहासाश्रित होते हैं यह समझना चाहिए । कवि जिस भागकी कल्पना करता है वही 'प्रकरण' का मुख्य भाग होता है । 'प्रकरण' का चमत्कार उसी भागमें निहित होता है । 'प्रकरण' की इसी कल्पनाकी प्रधानताको दिखलानेकेलिए ग्रन्थकार 'प्रकरण' पदका निर्वचन करते हुए इन कारिकाओं की व्याख्या प्रारम्भ करते हैं जिसमें नायक, फल, अथवा पाख्यानवस्तु अलग-अलग [एक-एक अथवा दो-दो) अथवा सब [अर्थात् तीनों प्रकृष्ट रूपसे किए जाते अर्थात् कल्पित किए जाते हैं वह 'प्रकरण' [कहलाता है। [यह प्रकरण' शब्दका निर्वचन होता है। उससे हो 'प्रकरण' की कल्पनाप्रधानता सूचित होती है । लक्ष्य [अर्थात् 'प्रकरण]' के प्रसिद्ध होनेसे [कारिकाके प्रारम्भ में सबसे पहले प्रयुक्त 'प्रकरण' इस पदसे] उसका अनुवाद करके [कारिकामोंके शेष भाग में] लक्षण किया गया है। [भागे लक्षणभागमें पाए हए वरिण मादि पदोंकी व्याख्या करते हैं] क्रय-विक्रय करने वाले वाणिक कहलाते हैं। [१ अध्ययन २ अध्यापन, ३ यमन, ४ याजन, ५ दान देना और ६ प्रतिग्रह अर्थात् बान लेना इन] छः कोको करने वाले 'विप्र' कहलाते हैं। राज्यको चिन्ता करने वाला 'सचिव' [कहलाता है। यह [सचिव वरिपक तथा विपके अन्तर्गत हो जानेपर भी [मर्थात क्षत्रिय राजा होता है और शूद्र सेवक । वे दोनों सचिव नही होते हैं। इसलिए वणिक या विप्रमेंसे ही सचिव होता है अतः उन दोनोंके मध्यंपाती होनेपर भी], धीरोदात्त [सचिव अथवा धीरप्रशांत [विप्र] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy