________________
२०४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ६६-६७, सू० ११७
यदाहु:
'सेनापतिरमात्यश्च धीरोदात्तौ प्रकीर्तितौ' इति ।
'संकरात्' इति व्यक्तिभेदेन वणिगादयो नेतारः । न पुनरेकस्यामेव प्रकव्यक्तौ समवकारादिवत् त्रयोऽपि ।
'प्रकरण' के नेता होते हैं इस बात के प्रतिपादनके लिए अलग कहा गया है। जो 'प्रमात्य' को नायक मानकर धीरप्रशांत-नायक वाला रूपक 'प्रकरण' होता है इस प्रकार [' प्रकरण' को ] विशेषित करते हैं वे वृद्ध-सम्प्रदायको नहीं समझते हैं। [प्रर्थात् वे प्राचीन प्राचायोंकी परम्परा के विपरीत बात करते हैं। क्योंकि प्राचीन प्राचार्योंके मतानुसार श्रमात्य या सचिव धीरप्रशांत नहीं अपितु धीरोदात नायक होता ] है ।"
जैसा कि कहा भी है
सेनापति और श्रमात्य धीरोदात्त [ नायक ] माने जाते हैं ।
इस अनुच्छेद में 'विप्राः षट्कर्माणः 1' यह जो लिखा गया है वह मनु आदि स्मृतिकारोंकी व्यवस्था के आधारपर लिखा गया है । 'मनुःस्मृति' में ब्राह्मणों के छः कर्म निम्न प्रकार गिनाए गए हैं
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ मनुः
कारिका में आए हुए 'असंकरात्' पदकी व्याख्या करते हैं । उसका प्राशय
तीनों नायक हो सकते हैं किन्तु
यह है कि यद्यपि 'प्रकरण' में विप्र, अमात्य तथा वरिण उनका संकर नहीं होना चाहिए। अर्थात् एक 'प्रकरण' में इनमें से एक ही नायक होना चाहिए। एक ही 'प्रकरण' में तीनों नायक नहीं हो सकते हैं । 'समवकार' आदिमें तो एक ही 'समवकार' में अनेक नायक भी हो सकते हैं । किन्तु एक 'प्रकरण' में अनेक नायक नहीं हो सकते हैं यह बात ग्रन्थकारने 'असंकरात्' पदसे सूचित की है। इसी बातको भगली पंक्ति में लिखते हैं
Jain Education International
'असंकरात्' इस [प] से [ यह सूचित किया है कि 'प्रकररण' में] व्यक्तिभेद से [अर्थात् अलग-अलग 'प्रकररंग' में अलग-अलग ] वणिक् प्रादि नायक हो सकते हैं। 'समयकारदि के समान एक ही 'प्रकररण' [रूप व्यक्ति ] में तीनों [नायक] नहीं [हो सकते हैं] ।
आगे कारिका के 'मन्दगोत्राङ्गनम्' पदका अर्थ करते हैं । इस पदको दो प्रकारकी व्याख्या की गई है । पहली व्याख्या में 'मन्द' पदको 'गोत्र' पदका विशेषण मान कर 'मन्द गोत्रा' अर्थात् नीचकुलोत्पन्ना वेश्यादि 'प्रकरण' की नायिका होती है यह प्रथं किया है । और दूसरी व्याख्या में पहले 'गोत्र' पदका 'अंगना' पदके साथ समास करके, फिर 'मन्द' पद को 'गोत्रांगना' पदका विशेषरण बनाया है । इस प्रक्रिया से 'मन्दा' अर्थात् निकृष्ट श्राचरण वाली 'गोत्रांगना' अर्थात् 'स्ववंशोत्पन्ना' अर्थात् नायकके समान गोत्रकी नायिका 'प्रकरण' में होती है यह अर्थ किया है । अर्थात् 'प्रकरण' में कहीं नीचकुलजा वेश्या आदि और कहीं स्वकुलोत्पन्ना, और कहीं दोनों प्रकारकी नायिकाएँ होती हैं । इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने 'प्रकरण' के लक्षण में लिखा है :
'नायिका कुलजा क्वापि, वेश्या क्वापि, द्वयं क्वचित्' । सा० द० ६-२२६ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org