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________________ का० ४५, सू० ५८ ] प्रथमो विवेकः [ ११७ अन्ये तु भेई प्रोत्साहनमाहुः । यथा 'वेणीसंहारे' "द्रौपदी-नधि ! मा खु जएणसेणीपरिभवुद्दीविदकोवा अणवेक्खिदसरीग परिककमिस्सध, यदो अपमत्तसंचरणोयाई रिउबलाई सुणीयति । [नाथ मा खलु याज्ञसेनीपरिभवोद्दीपितकोपा अनपेक्षितशरीराः परिक्रमिष्यथ यतोऽप्रमत्तसञ्चरणोयानि रिपुबलानि श्रूयन्ते । इति संस्कृतम् ।] "भीमः-अयि सुक्षत्रिये ! 'अन्योऽन्यास्फालभिन्न-' ___ इत्यादिना विषएणाया द्रौपद्याः क्रोधोत्साहबीजानुगुण्येनैव प्रोत्साहना भेदः इति । अन्ये तु संहतानां प्रतिपक्षाणां बीजफलोत्पत्तिनिरोधकानां विश्लेषकं भेद- . रूपमुपायं 'भेदने' मन्वते इति ॥४४॥ (8) अथ प्रापणम्-- [सूत्र ५८]-~प्रापणं सुखसम्प्राप्तिः सुग्वस्य सुवहे तोश्च सम्यगन्वेषणादाप्तिःप्रापणम् । यथा वेणीसंहारे "कञ्चुकी-[प्रविश्य] कुमार एष खलु भगवान् वासुदेवः पाण्डवपक्षपातामर्षितेन कुरुराजेन संयमितुमारब्धः । ततः स महात्मा दर्शितविश्वरूपतेजःसम्पातमूछितमवधूय कुरु बलमस्मत्सेनासन्निवेशमनुप्राप्तः । अतो देवः कुमारमविलम्बितं अभिप्रायको प्रदर्शित किया है इसलिए यह 'भेवन' नामक अङ्ग है। अन्य [प्राचार्य] तो प्रोत्साहनको भेद' कहते हैं । जैसे वेणीसंहारमें "द्रौपदी-नाथ याज्ञसेनीके अपमानसे उद्दीप्तक्रोध होकर कहीं अपने शरीर [को रक्षाको] पोरसे असावधान होकर युद्धभूमिमें न घूमने लगना । क्योंकि शत्रु-सेनामें सावधान होकर ही जाना चाहिए ऐसा सुनते हैं। भीम---हे सुभत्रिये ! [तुम डरती क्यों हो] 'अन्योऽन्यास्फाल' [इत्यादि पिछले श्लोकमें कहे हुए संग्रामके भीतर विचरण करने में पाण्डव लोग बहुत निपुण हैं। इसलिए तुम चिन्ता न करो । इत्यादि [कथन] से, विषण्ण मनवाली द्रौपदीको क्रोध तथा उत्साहके बीजके अनुरूप ही प्रोत्साहन किए जानेसे यह 'भेद' नामक अङ्ग] है। अन्य [प्राचार्य] तो बीजकी फलोत्पत्तिका अवरोध करनेवाले संहत शत्रुनोंके फोड़ने वाले भेदरूप उपायको ही 'भेदन' [नामक सन्ध्यङ्ग] मानते हैं ॥४४॥ । __इस प्रकार 'भेदन' नामक अष्टम अङ्गकी चार प्रकारको व्याख्या उपस्थित की है। अब आगे मुखसन्धिके नवम अङ्ग 'प्रापण'का लक्षण प्रादि करते हैं। (E) प्रापण अब प्रापण [नामक, मुखसन्धिके नवम अङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ५८]-सुखकी सम्प्राप्ति प्रापण [नामक अङ्ग कहलाती है। सुख तथा सुखके कारणको भली प्रकार अन्वेषणसे होनेवाली प्राप्तिको 'प्रापरण' [नामक सन्ध्यङ्ग कहा जाता है। जैसे वेणीसंहारमें "कञ्चुकी-[प्रविष्ट होकर कुमार पाण्डवोंके प्रति पक्षपातके कारण कुछ होकर कुरुराजने इन भगवान वासुदेवको पकड़ना चाहा। तब वे महात्मा अपने विश्वरूपके प्रदर्शित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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