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________________ ११८ ] नाट्यदर्पणम् द्रष्टुमिच्छति ।" अयं ह्यर्थो भोमसेनस्य कुरुभिः सह सन्धिभेदमापादयश्चान्तः सुखयतीति । तथा भरिणतिवैचित्र्यार्थमङ्गानि कवय एकस्मिन्नपि सन्धावावर्तयन्ति । यथा वेणीसंहारे इदमेवाङ्ग पुनर्निबद्धम् । तथाहि "बेटी - [ द्रौपदीमुद्दिश्य सानन्दम् ] भट्टिणि ! परिकुविदो विश्र कुमारो लक्खीयदि । [भत्रि ! परिकुपित इव कुमारो लक्ष्यते । इति संस्कृतम् ] | द्रौपदी - एवं ता अवधीरणा वि में एसा समासादि । ता इध य्येव उवविसि सुखामो दाव नाधस्स ववसिदं । [एवं तावदवधीरणापि मामेषा समाश्वासयति । तदत्रैवोपविश्य श्रुणुमः तावत् नाथस्य व्यवसितम् । इति संस्कृतम् ] । भीमः - मथ्नमि कौरवशतं समरे न कोपाद, दुःशासनस्य रुधिरं न पित्राम्युरस्तः । सचूर्णयामि गदया न सुयोधनो सन्धिं करोतु भवतां नृपतिः पणेन ॥ द्रौपदी - [ सहर्षम् ] असुदपुरवं ईदिसं वयणं, ता पुणो विभा । [ अश्रुतपूर्वं ईदृग् वचनम् । तत् पुनरपि भरण । इति संस्कृतम् ] ।" करनेके तेजसे मूछित कौरव बलको छोड़कर अपनी सेनाके शिविर में चले आए। इसलिए देव प्रापको [ कुमारको] तुरन्त देखना चाहते हैं । [प्रर्थात् प्रापको तुरन्त बुला रहे हैं ] ।" कौरवोंके साथ सन्धि [के प्रयत्न] को समाप्त करनेवाला यह अर्थ भीमसेनके अन्तःकररणको प्रसन्न करता है [ इसलिए यह प्रापरण नामक अङ्ग है] । उक्ति- वैचित्र्य सम्पादनार्थ कविगण एक ही सन्धिमें भी श्रङ्गों को दुहरा देते हैं । जैसे वेरणीसंहार में [मुखसन्धिमें ही] इस [प्रापरण नामक] अङ्गको ही दुबारा [ इस प्रकार से ] निबद्ध किया गया है। जैसे कि [ का० १५, सू० ५८ "चेटी -- [ द्रौपदीको लक्ष्य करके श्रानन्दपूर्वक कहती है] हे स्वामिनि ! कुमार [भीमसेन ] कुपितसे दिखलाई देते हैं । द्रौपदी - यदि यह बात है तो [मेरे प्रति उनकी ] यह उपेक्षा भी मुझको सान्त्वना प्रदान करती है । इसलिए हम दोनों यहीं बैठकर नाथके निश्चयको सुनें । भीम - ‍ -यदि श्राप [सहदेव प्रावि] के राजा साहब [ युधिष्ठिर] किसी शर्त पर [कौरवों के साथ ] सन्धि कर लें तो क्या मैं क्रुद्ध होकर युद्ध भमिमें सौ कौरवोंका नाश नहीं करूँगा । अथवा दुःशासनकी छातीका रक्त पीना छोड़ दूँगा । या गदासे दुर्योधनकी जंधानोंको चूर्ण नहीं करूँगा । [ अर्थात् युधिष्टिर भले ही कौरवोंके साथ सन्धि कर लें, पर मैंने तो जो कुछ प्रतिज्ञा कर ली है उसको पूरा करके ही रहूँगा । सन्धिके कारण अपनी प्रतिज्ञाको कभी भी न छोड़ गा] । द्रौपदी - [ सहर्ष ] इस प्रकारका [श्रानन्ददायक ] वचन पहिले कभी नहीं सुना था इसलिए [ इसको ] फिर-फिर कहिए ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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