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________________ का० १ सू० १ ] प्रथमो विवेकः [ ε 'चतुर्वर्गे' इत्यादि - चतुर्वर्गो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षा, यथौचित्यं प्रधानं गौ‍ वा 'फलं' यस्याः । समुदाय समुदायिनोरभेदोऽप्यस्ति, तेन पुरुषभेदेन एक-द्वि-त्रिपुरुषार्थ फलत्वेऽपि चतुर्वर्गफलत्वं न विहन्यते । इष्टलक्षणत्वाच्च फलस्य यो यस्य पुरुषार्थोऽभीष्टः स तस्य प्रधान, अपरो गौणः | 'नित्यम्' इत्यनेन आवश्यकं वाचः चतुवर्गफलं प्रति हेतुत्वमुच्यते । अर्थापेक्षया जिनानामियं 'जैनी' । जिनोपदिष्ट' ह्यर्थं ऋषयो प्रश्नन्ति | 'वाचम्' इति भारतीम् । 'उपास्महे' तदर्थानुष्ठानेन समीपे वर्तामहे । समीपवृत्या च तदेकशरणत्मात्वमात्मनः ख्यापितम् । [अपने प्राचाराङ्ग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त प्रसिद्ध] बारह रूपोंके द्वारा समस्त जगत्को न्यायोचित [ धर्मानुकूल ] मार्ग में नियन्त्रित किया है |१| 'चतुर्वर्ग' इत्यादि [व्याल्येय श्लोक का प्रतीक भाग है । श्रागे उसकी व्याख्या करते हैं] चतुर्वर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष [रूप चारों पुरुषार्थ प्रकरणानुकूल] प्रौचित्य अनुसार जिसके प्रधान या गौण फल हैं [ वह चतुर्वगंफला वारणी हुई ] । समुदाय श्रौर समुदाय [श्रर्थात् समष्टि और व्यष्टि ] का प्रभेद भी [माना जाता ] है इसलिए पुरुषभेदसे [कीं] एक [ कहीं ] दो और [कहीं] तीन पुरुषार्थके फल होनेपर भी चतुर्वर्गफलत्व का खण्डन नहीं होता है । इसका अभिप्राय यह है कि यहाँ जिन वारणीका जो 'चतुर्वर्गफलत्व' प्रतिपादन किया है वह सर्वत्र समान रूपसे घटित नहीं होता है । पुरुषभेदसे उसमें भेद पाया जाता है । कहीं धर्म अर्थ कामादिमें से केवल एक ही फलकी प्राप्ति होती है । कहीं दो फल भी मिल सकते हैं और कहीं तीन या चार फल भी मिल सकते हैं। इसलिए जिन वारगी कहीं एकफला, कहीं द्विफला, और कहीं त्रिफला भी हो सकती है । इसलिए यहाँ जो 'चतुर्वर्गफलत्व' कहा है सो उचित नहीं है । यह शङ्का हो सकती है । इस शङ्काका समाधान करनेकेलिए ग्रन्थकारने समुदाय और समुदायी अर्थात् समष्टि और व्यष्टि के प्रभेद - सिद्धान्तका श्राश्रय लिया है । इस सिद्धान्त के अनुसार समुदायी अर्थात् व्यष्टि रूप धर्म, अर्थ आदि अलग-अलग व्यक्तियों और उन चारोंके समुदाय अर्थात् समष्टिको अभिन्न मानकर केवल एक, दो या तीन फलों के होने पर भी चतुर्वर्गफलत्व बन जाता है। उसमें कोई दोष नहीं होता है । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है । ये चारों फल सर्वत्र समान स्थितिमें भी नहीं होते हैं । कोई प्रधान होता है प्रोर कोई गौरा । जो फल जिस समय जिस व्यक्तिको विशेष रूपसे अभीष्ट होता है वह उस समय प्रधान फल कहलाता है और शेष फल गौरग कहलाते हैं । परन्तु वह फल चाहे प्रधान रूप हो अथवा गौण रूप, प्रत्येक दशा में चतुर्वर्गफलके भीतर गिना जाता है । तभी उन चारोंकी फलरूपताका उपपादन हो उकता है ऐसी बातको प्रागे कहते हैं--- और फलके इष्ट होने से [अर्थात् अभीष्ट अर्थकी प्राप्तिके ही फल-पद- वाच्य होनेसे धर्मादि चारों पुरुषार्थोमेंसे जिस समय ] जो पुरुषार्थ जिसको प्रभीष्ट है वह उसके लिए प्रधान [ फल ] होता है और प्रत्य [पुरुषार्थ ] गौरग [ फल ] होते हैं । [ 'चतुर्वर्गफलों के साथ अन्वित होने वाले ] 'नित्यम्' इस पदसे वारणीका चतुर्वर्गफलके प्रति आवश्यक - श्रनिवार्य —हेतुत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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