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[ का० १ सू० १
नाट्यदर्पणम कवित्ववन्ध्याः क्लिश्यन्ते सुखाकतु जगन्ति ये । नेत्रे निमील्य विद्वांसस्तेऽधिरोहन्ति पर्वतम् ||१२|| अथ शिष्टसमयपरिपालनाय प्रत्यूहव्यूहोपशमनाय च सकल सन्दर्भार्थम्तवनागर्भ समुचितेष्टाधिदैवतस्य सूत्रकारों नमस्कार श्लोकं परामृशन:[ सूत्र १ ] - चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनीं वाचमुपास्महे । रूपैर्द्वादशभि- विश्वं यया न्याय्ये पथि धृतम् ॥ १ ॥
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अर्थात् जिस प्रकार कामिनीका मुख पूर्ववर्ती चन्द्रमाकी कान्तिका अनुसरण करने पर भी प्रत्यन्त शोभित होता है इसी प्रकार पूर्वकाव्यकी छायाका अनुसरण करनेवाला नवीन काव्य भी चमत्कारयुक्त हो सकता है । श्रानन्दवर्धन इस प्रकारके काव्य- साम्यके समर्थक हैं । इसीको पूर्व इलोक में "कविरनुहरति च्छायां" लिखकर ग्राह्य कहा गया है ।
कवित्वशक्तिसे रहित जो [विद्वान् प्रपनी कोरी विद्याके श्राधारपर ] जगत्को प्रसन्न [सुखी] बनानेका क्लेश उठाते हैं वे विद्वान् मानो आँखें मींच कर पर्वतपर चढ़ने का यत्न करते हैं। [श्रर्थात् वे कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते हैं] उनका वह प्रयास प्रविवेकपूर्ण है ॥ १२ ॥
मूल ग्रन्थका मैङ्गलाचरण
ऊपरके बारह श्लोक ग्रन्थकी अवतरणिका रूपमें लिखे गए थे । वे मूल ग्रन्थ के भाग न होकर उसके व्याख्याभूत विवरणके भाग थे । अब प्रागेसे मूल ग्रन्थ धौर उसकी व्याख्याका श्रारम्भ होता है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है- एक मूल कारिका भाग जिसको सूत्रभाग भी कहा जाता है, और दूसरा उसका व्याख्या - भाग श्रथवा विवरण भाग कहलाता है। इन दोनों भागोंके निर्माता एक ही व्यक्ति हैं । प्रर्थात् सूत्रकारोंने स्वयं ही उसपर विवरण भी लिखा है । इसलिए मूल सूत्र ग्रन्थका जो मङ्गल श्लोक था उसीको उन्होंने अपने विवरणके प्रारम्भमें मङ्गलश्लोकके रूपमें भी दे दिया है । 'चतुवर्गफलां' इत्यादि श्लोकको हम इससे पहिले भी देख चुके हैं, वही श्लोक अब फिर श्रा गया है। इसका यही कारण | पहिली जगह विवरण या व्याख्या-भागके मङ्गलश्लोकके रूपमें उसको दिया गया था । अव उसे मूल सूत्र-ग्रन्थ के मङ्गलदलोकके रूपमें लिखकर स्वयं सूत्रकार ही उसकी व्याख्या कर रहे हैं। इस बात को समझ लेनेसे श्लोककी पुनरावृत्ति से किसी प्रकारका संशय या भ्रम उत्पन्न नहीं होगा ।
'सदाचार के परिपालन के लिए श्रौर विघ्न समुदायके नाश करनेकेलिए सूत्रकार [अर्थात् मूल सूत्र ग्रन्थके निर्माता रामचन्द्र गुरणचन्द्र ] सम्पूर्ण ग्रन्थके अर्थको स्तुति से युक्त [प्रन्थके प्रारम्भमें नमस्कार करने योग्य ] समुचित इष्टदेवता [जैनी वाक् श्रर्थात् सरस्वती ] के नमस्कार -परक श्लोक लिखते हैं-
[ सूत्र २] - [ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप] चतुर्वर्गात्मक फलको प्रदान करने वाली [रागादि दोषोंको जीत लेने वाले श्रत एव ] जिनों [प्रर्थात् जिन नामसे कहे जाने वाले सन्तों] की [ उस] वारणीको [ इस ग्रन्थके निर्माता हम दोनों] नमस्कार करते हैं जिसने
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