SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० नाट्यदर्पणम् [ का० १, सू०१ 'नित्यम्' इत्यस्यात्रापि सम्बन्धादुपासनस्याविच्छित्तिः ख्यापिता । रूपाणि अङ्गान्याचारादीनि दृष्टिवादपर्यन्तानि । 'द्वादश' प्रसिद्धानि । संख्या निर्देशेन चानियन्त्रितसंख्याया जिनवाचः प्रस्तुतातुल्यत्वेन व्यवच्छेदः कथ्यते । ___ 'विश्वम्' इति समुदायापेक्षमेकत्वम्। कर्मभूमित्वात् प्राधान्यविवक्षया मनुष्यलोको का विश्वम् । 'न्याय्ये' न्यायादनपेते । 'धृतम' व्यवस्थापितम् । व्यवस्थापनस्य काल्येऽपि अतीतनिर्देशोऽर्थापेक्षया वाचोऽनादित्वख्यापनार्थः । 'पथि' इति पुरुषार्थप्रापणोपायत्वादहिंसा-दानादिकं कर्म लक्ष्यते । सूचित किया है ।' [अर्थात् जिनवाणी अवश्य ही चतुवर्गरूप फलको प्रदान करने वाली होती है। यह जिन-वाणी सर्वत्र साक्षात् शब्दात्मक ही हो यह आवश्यक नहीं है किन्तु] अर्थको अपेक्षासे [रागादिके विजेता अत एव 'जिन' नामसे प्रसिद्ध सन्तों] जिनोंकी यह [वारणी] 'जैनी' वाग [कही गई है। जिनों [ अर्थात् रागादि विजेता सन्तों ] के द्वारा बतलाए हुए प्रर्थको ही ऋषि लोग ग्रन्थ रूपसे लिखते हैं । [इसलिए ऋषियोंके ग्रन्थों में लिखी गई भाषा साक्षात् जिन-वाणी न होते हुए भी 'प्रर्थापेक्षया' जिनोंकी वाणी 'जैनी वाग्' [कही जा सकती है] 'वाचम्' इस पदसे भारती [का ग्रहरण होता है] । 'उपास्महे' इससे उसके अनुसार पाचरण द्वारा उसके समीपमें उपस्थित होते हैं । समीप रहने के द्वारा अपने एकमात्र उसके शरणगत्वका प्रतिपादन किया है। 'नित्यम्' इस पदका अन्वय एक बार पहिले 'चतुर्वर्गफलां' के साथ कर चुके हैं । किन्तु दुबारा 'उपास्महे' के साथ भी ग्रन्थकार उसका अन्वय करना चाहते हैं। और इस प्रकार उपासनाकी नित्यता या निरन्तरता सूचित करना चाहते हैं । इसलिए अगली पंक्तिमें वे अपने इस अभिप्रायको व्यक्त करते हुए लिखते हैं "नित्यम् इस [पद का यहाँ [उपास्महे पदके साथ] भी अन्वय होनेसे उपासनाका अविच्छेद [नरन्तर्य] सूचित किया है । [बारह] रूप अर्थात् प्राचारादिसे लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अङ्ग प्रसिद्ध हैं। [द्वादश इस] संख्या निर्देशसे अनियत-संख्या वाली जिन-वाणीके प्रस्तुत [अर्थात् द्वादश संख्या वाले रूपकभेदों के साथ समानता न होनेसे व्यवच्छेद किया गया है । ___ इसका यह अभिप्राय हुआ कि जिनोंकी वाणी तो अन्य विषयोंसे सम्बन्ध रखने वाली अनेक प्रकारको हो सकती है किन्तु यहाँ उस सबका ग्रहण नहीं किया गया हैं। द्वादशाङ्ग वाली जिन-वाणीकी ही प्रस्तुत द्वादश प्रकारके रूपकोंके साथ समानता हो सकती है इसलिए आचाराङ्गसे लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादश अङ्गोंका प्रतिपादन करने वाली जिन-वाणीको ही यहाँ नमस्कार किया है। ___'विश्वम्' इस पदमें समुदायको दृष्टिसे एक वचन [का प्रयोग किया गया है । [अर्थात् उस एकवचनसे समष्टि रूपसे सारे चराचर जगत्का ग्रहण करना चाहिए] । अथवा कर्मभूमि [अर्थात् कर्म-योनि] होनेके कारण प्रधानताको विवक्षासें [केवल] मनुष्यलोक [यहाँ] 'विश्व' [पदसे अभिप्रेत हो सकता है। [धर्मपय्यर्थन्यायादनपेते अष्टा० इस सूत्रसे न्याय-शब्दसे यत्प्रत्यय करके 'न्याय्य' शब्दकी सिद्धि होती है। इसलिए] 'न्याय्य' अर्थात् न्यायसे अनपेत [न्यायानुकूल मार्ग] में । 'धृतम्' अर्थात् व्यवस्थित किया । [इस] व्यवस्थापनके अकालिक होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy