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का० ५६, सू०१८ ] प्रथमो विवेकः
[ १६६ प्रस्तुतस्य कार्यस्य ज्यानिः अत्ययो विरोध इव 'विरोधः' । यथा कृत्यारावणे सप्तमेऽङ्क
"कञ्चुकी-[लक्ष्मण-विभीषणौ प्रति] कुमार ! एतत् । उभौ-किम् । कन्चुकी-श्राः इदम् । उभौ-आर्य ! कथय कथय ।
कञ्चुकी-का गतिः ? श्रयताम् । आर्या खलु सीता रावणाज्ञया किंकरोपनीतं भतु याशिरोऽवलोक्य सखीभिराश्वास्यमानापि निवृत्तप्रयोजना 'नाहमात्मानं क्लेशयामि' इत्युक्त्वा
सर्वे-किं कृतवती ? कन्चुकी-यन्न शक्यते वक्तुम् ।
शशिन इव कला निशावसान' कमलवनोदरमुत्सुके व हंसी।
पतिमरणरसेन राजपुत्री स्फुरितकरालशिखं विवेश वह्निम् ॥" अत्र सीताप्रत्यानयनस्य प्रस्तुतस्य विरोधः ।
अन्ये तु खेद-विरोधौ न मन्यन्ते । विद्रव-विचलने तु पठन्ति । तत्र विद्रवो बन्ध-बधाध्यवसायादिः। यथा छलितरामे
प्रस्तुत कार्यकी हानि अर्थात् नाश विरोधके समान होनेसे 'विरोध' [कहलाता है । जैसे कृत्यारावणके सक्षम अङ्कमें
"कञ्चुकी-लक्ष्मरण तथा विभीषणके प्रति कहता है] -कुमार ! यह । दोनों-क्या ? कञ्चुकी-अरे यह। दोनों-आर्य ! कहिए-कहिए [क्या बात है] ।
कञ्चुकी--क्या करू । अच्छा सुनो। प्रार्या सीताने रावणको प्राज्ञासे नौकर द्वारा लाए गए [स्वामी रामचन्द्रके [कटे हुए] बनावटी सिरको देखकर, सखियोंके द्वारा प्राश्वासन दिए जानेपर भी 'अब मरे] जीनेका प्रयोजन समाप्त हो गया' ऐसा कहकर
सब लोग-क्या किया ? कञ्चुकी-जिसको कहा नहीं जा सकता है।
रात्रिकी समाप्तिपर चन्द्रमाको कलाके समान हो जानेके] समान, उत्सुका हंसीके कमल वनोंके भीतर [समा जाने के समान, पतिके मरणके रससे राजपुत्री सीता भयंकर ज्वालाएँ जिनमेंसे निकल रही हैं इस प्रकारको अग्निमें प्रविष्ट हो गई।"
इसमें सीताके प्रत्यानयन रूप प्रस्तुत कार्यका विरोष है। [इसलिए यह मामर्श सन्धिके 'विरोध' नामक अष्टम अंगका उदाहरण है] ।
अन्य लोग तो खेद और विरोध इन दोनों प्रङ्गों को नहीं मानते हैं [उनके स्थान पर] "विद्र' तथा 'विचलन' [अगों को मानते हैं। उनमें से बध अथवा बन्धनके निश्चयको 'विद्रव' कहते हैं । जैसे 'छलितराम' में१. विनावसाने।
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