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नाट्यदर्पणम्
[ का० १०६, सू० १६३ परस्थानपि रसानवबोधयन्तीति श्रनुभावाः । स्तम्भ-स्वेद-अश्रु-रोमाञ्च-नक्षेप - श्रादयः । तैर्यथासम्भवं सत्तया निश्चेयः ।
इह तावत् सर्वलोकप्रसिद्धा परस्थस्य रसस्य प्रतिपत्तिः । सा च न प्रत्यक्षा चेतोधर्माणामतीन्द्रियत्वात् । तस्मात् परोक्षैव । परोक्षा च प्रतिपत्तिरविनाभूताद् वस्त्वन्तरात् । अत्र च रसेऽन्यस्य वस्त्वन्तरस्यासम्भवात् कार्यमेवाविनाकृतम् ।
[अनुभावोंके द्वारा रसका निश्चय होता है]। क्योंकि प्रसंदिग्ध हो लिङ्ग [धनुमापक] होता है । [आगे इस पदमें प्राए हुए 'अनुभाव' पदकी व्युत्पत्ति दिखलाते हैं] अनुभव कराते हैं अर्थात् दूसरे में रहने वाले रसोंको लक्षित करते हैं इसलिए [' अनुभावयन्ति इति धनुभावा:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ] स्तम्भ, स्वेद, प्रभु, रोमाच, भ्रूक्षेप प्रादि 'अनुभाव' [कहलाते] हैं। उनके द्वारा यथासम्भव सद्रूपमें निश्चय किया जानेवाला [रत्यादि स्थायिभाव रस कहलाता है ] । यहाँ [काव्य नाटक आदिमें] दूसरे [ रामादि] में रहने वाले रसको प्रतीति सारे लोक में प्रसिद्ध है। [ वह प्रन्तः कररणवर्तिनी होती है ।] और प्रन्तःकरणके धर्मोके इन्द्रियग्राह्य न होनेसे प्रत्यक्ष नहीं कही जा सकती है। इसलिए परोक्ष रूप ही है । और परोक्ष प्रतीति उससे विनाभूत [ प्रर्थात् जिसके विना वह प्रतीति नहीं बन सकती है इस प्रकार के [शब्द या लिङ्ग प्रादि रूप ] अन्य वस्तुके द्वारा होती है। और रसमें [ इस प्रकारकी ] श्रन्य वस्तुका सम्भव न होनेसे उसका कार्य [प्रर्थात् मनुभावादि] ही [रसके] प्रविनाभूत है। इसलिए उन्होंके द्वारा रसकी प्रतीति होती है] ।
इस पंक्ति में ग्रंथकारने यह कहा था कि अनुभावादि कार्य हो रसके श्रविनाभूत या नान्तरीयक होते हैं इसलिए उनके द्वारा ही रसकी प्रतीति होती है । इसपर यह शंका उपस्थित की जा सकती है कि अनुभावादिको रसका नान्तरीयक या अविनाभूत नहीं कहा जा सकता है । इसका कारण यह है कि रसका अविनाभूत केवल उनको कहा जा सकता है जो रसके बिना हो ही न सकें । स्तम्भ स्वेदादि श्रनुभावोंकी वह स्थिति नहीं हैं । दे तो रसके बिना भी हो सकते हैं। जैसे अभी ऊपर कहा जा चुका है कि ग्स या तो मुख्य लोक श्रर्थात् रामादिमें रहता है प्रथवा प्रेक्षक श्रर्थात् सामाजिक में रहता है नटमें रस मुख्य रूप से नहीं रहता है । किन्तु रसका अभाव होनेपर भी नटमें स्तम्भ स्वेदादि अनुभाव पाए जाते हैं । इसलिए वे रसके अविना भूत या नान्तरीयक नहीं है। तब उनसे रसकी प्रतीति कैसे हो सकती है ? इस शंकाका समाधान ग्रन्थकार दो प्रकारसे करते हैं । पहिला समाधान तो यह है कि हम नटगत स्वेदादि अनुभावोंके द्वारा रसकी अनुभूति नहीं मानते हैं। क्योंकि हमने 'कार्यमेवाविनाभूतं' कहा है । हम रसके कार्यरूप अनुभावोंको रसका अविनाभूत कहते हैं । नटगत स्तम्भादि रसके कार्य नहीं अपितु कारण है । नटगत स्तम्भ - स्वेदादिको देखकर प्रेक्षक या सामाजिक में रसानुभूति होती है । इसलिए नटगत स्तम्भ-स्वेद अश्रु आदि सामाजिकगत रसके कारण हैं, कार्य नहीं । प्रेक्षकगत प्रश्रु श्रादि उसके कार्य हैं । उन प्रेक्षकगत अनुभावादिको देखकर दूसरोंको परस्थ रसकी पतीति होती है । यह ग्रन्थकार के द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रथम समाधानका अभिप्राय है ।
इस समाधान के विषयमें एक बात विशेष रूपसे ध्यान देनेकी यह है कि यहाँ ग्रन्थकार ने प्रेक्षकगत अनुभावादिको कार्यरूप कहा है, और उनके द्वारा 'परस्थ' रसकी प्रतीतिका
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