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________________ का० १०६, सू० १६३ 1 तृतीयो विवेकः ___ रसश्च मुख्यलोकगतः प्रेक्षकगतः काव्यस्य श्रोतृ-अनुसन्धायकद्वयगतो वेति । 'स्पष्टाः' इति स्पष्टाः सम्यङ् निर्णीताः। असन्दिग्धं हि लिङ्ग भवति । अनुभावयन्ति रसको दुःखात्मक और विप्रलम्भ शृङ्गारको सुखात्मक रस माना है । इस भेदका कारण यह है कि विप्रलम्भ शृङ्गारमें पुनर्मिलनको सम्भावना बनी रहती है । किन्तु करुणमें पुनर्मिलनकी सम्भावना नहीं रहती है । रामचन्द्रके जीवन में सीता हरणके बादका प्रसंग विप्रलम्भ शृङ्गार का प्रसंग है और सीतानिष्कासनके बादका प्रसंग करुणरसका प्रसंग है । इसी भेदको महाकवि भवभूतिने उत्तर रामचरितमें इस प्रकार दिखलाया है उपायानां भावादविरलविनोदव्यतिकरैः, विमर्दैीराणां जनितजगत्यभुतरसः। वियोगो मुग्धाक्ष्याः स खलु रिपघातावधिरभूत्, कटुस्तूष्णीं सयो निरवधिरयं तु प्रविलयः ।। करुण तथा विप्रलम्भ दोनोंमें प्रियजनका वियोग होता है । उस वियोगमें दोनों जगह दुःखी व्यक्ति रुदन विलाप प्रादि करता है। पर इन दोनोंका भेद कराने वाली सीमारेखा मृत्यु है । मृत्युके पहले वाला वियोग विप्रलम्भका क्षेत्र है और मृत्युके बादका वियोग करुण का क्षेत्र है। विप्रलम्भशृङ्गारमें पति-पत्नीका वियोग होता है, पर किसीका मरण नहीं होता है। इसलिए उस वियोगको अवस्थामें किया जाने वाला रुदन और विलापादि सब विप्रलम्भशृङ्गारको सीमामें प्राता है। किन्तु जहाँ किसी एकको मृत्यु हो जानेके बाद उसा प्रकारका रुदन और विलाप पाया जाता है वह सब करुणकी सीमामें पाता है। करुण रसको सीमाका निर्धारण करने वाला यह मृत्यु कभी वास्तविक भी होता है और कभी अवास्तविक भी हो सकता है। प्रवास्तविक मृत्युका अभिप्राय यह है कि वास्तवमें मृत्यु तो नहीं हुई है किन्तु किसी कारणसे पति-पत्नी दोनों में से किसी एकने अपने दूसरे साथी की मृत्यु समझ ली है। जैसे रामचन्द्रने सीताको बनमें भिजवा देनेके बाद यह समझ लिया है कि 'कव्याद्भिरङ्गलतिका नियतं विलुप्ता' सीताके शरीरको निश्चय ही जंगलके मांसभक्षी सिंहादि प्राणी खा गए हैं। यद्यपि सीता मरी नहीं है किन्तु रामचन्द्रने उसको मरा हुमा ममझ लिया है । फलतः उत्तररामचरितमें किया गया रामचन्द्रका सारा विलाप करुणरसका विषय, और उत्तररामचरितको करुणरस प्रधान नाटक माना जाता है। इसीलिए उत्तररामचरितमें सीताके इस वियोगको "निरवधिरयं तु प्रविलयः' कहा गया है । रसका श्राश्रय इस प्रकार ग्रंथकारने यहाँ तक रसोंको सुखात्मक और दुःखात्मक दो वर्गोमें विभक्त करते हुए सारे रसोंको सुखात्मक माने जानेके सिद्धांतका विस्तारपूर्वक खण्डन किया है। अब प्रागे और व्याख्या प्रारम्भ करते हैं । इसमें भी पहिली पंक्तिमें रसोके पाश्रयका निरूपण करते हुए लिखते हैं कि और रस [मुख्य लोकगत प्रर्थात] अनुकार्यगत [अर्थात् रागादिगत होता है अथवा सामाजिकगत होता हैं [अर्थात मुख्य रूपसे नटमें रस नहीं रहता है और काव्यमें [काव्यके] श्रोता अथवा निर्माता [अनुसन्धायक इन दोमें रहता है। [मागे कारिकामे प्राए हुए 'स्पंडातुभावनिश्चेयः' पदको व्याख्या करते हैं ] स्पष्टा' इससे स्पष्ट अर्थात भली प्रकारसे मिलीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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