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________________ २९२ ] . नाट्यदर्पणम [ का० १०६, सू० १६३ लक्ष्मणस्य शक्तिभेदनं, मालत्या व्यापादनारम्भणमित्याद्यमिनीयमानं पश्यतां सहृदयानां को नाम सुखास्वादः ? __ तथानुकार्यगताश्च करुणादयः परिदेवितानुकार्यत्वात् ' तावद् दुःखात्मका एव । यदि चानुकरणे सुखात्मानः स्युर्न सम्यगनुकरणं स्यात् । विपरीतत्वेन भासनादिति । योऽपीष्टादिविनाशदुःखवतां करुणे वय॑मानेऽभिनीयमाने वा सुखास्वादः सोऽपि परमार्थतो दुःखास्वाद एव । दुःखी हि दुःखितवार्तया सुखमभिमन्यते । प्रमोदवार्तया तु ताम्यतीति करुणादयो दुःखात्मान एवेति । विप्रलम्भशृङ्गारस्तु दाहादिकार्यत्वाद् दुःखरूपोऽपि सम्भोगसम्भावनागर्भत्वात् सुखात्मकः। यहाँ दासता, रोहिताश्वके मरण, लक्ष्मणके शक्तिभेदन, मालतीके मारनेके उपक्रम प्राविके अभिनयको देखने वाले सहृदयोंको सुखका प्रास्वाद कैसे हो सकता है ? [इसलिए करुणादि रसोंको सुखात्मक मानना उचित नहीं है। इसी बातके समर्थन के लिए प्रागे और भी युक्ति देते हैं। पौर अनुकार्यगत [अर्थात् रामचन्द्र प्रादिके वास्तविक जीवन में सीतावियोगके समय] करणादि विलापादियुक्त होनेके कारण निश्चित रूपसे दुःखात्मक ही होते हैं। यदि उनको अनुकरण [रूप नाटकादि] में सुखात्मक माना जाय तो वह सम्यक् अनुकरण नहीं हो सकता है। वास्तविक दुःखात्मक प्रतीतिसे] विपरीत रूपमें [नाटकादिमें ] प्रतीत होनेसे [नाटकादिमें रामके वृत्तका यथार्थ अमुकरण नहीं बनेगा। इस कारण भी करुणादिको दुःखात्मक ही मानना पड़ेगा] 1 . . कभी-कभी किसी इष्टजनके विनाशके समय उसको सान्त्वना देनेकालए लोग किसी अन्यके इसी प्रकारके दुःखका वर्णन आदि करते हैं। और उस प्रकारके दूसरेके दुःखको सुनकर या देखकर दुःखित व्यक्तिको कुछ सान्त्वना और अपने कष्टको सहनेका बल मिलता है परन्तु वह सुख नहीं है। वह दुःखास्वाद ही है । दुःखी व्यक्तिके सामने दूसरोंके उसी प्रकारके दुःखके वर्णनसे तो उसको सान्त्वना मिलती है किन्तु यदि उस दुःखके समय उसके सामने नाच-रंग आदि प्रानन्द वार्ताकी चर्चा की जाय तो वह उसको बुरी मालूम होती है। इसलिए करुणादि रस दुखात्मक ही है इस बातको आगे ग्रन्थकार इस प्रकार लिखते हैं और इष्टजनके विनाशसे दुःखियोंके सामने करुणादिका वर्णन किए जाने अथवा अभिनय किए जानेपर जो सुखास्वाद होता है वह ही वास्तवमें दू:खास्वाद ही होता है । दुःखी व्यक्ति दूसरे दुःखी व्यक्तिको दुःख-वार्तासे सुख-सा [सान्त्वना-सी] . अनुभव करता है। और प्रमोदकी वार्तासे [उस समय] उद्विग्न होता है । इसलिए भी करुण प्रादि रस दुःखात्मक हो होते हैं [उनको सुखात्मक रस नहीं माना जा सकता है । ‘विप्रलम्भ शृंगार तो [इष्टजनके ] दाहादि [द्वारा विनाशकी प्रतीति] से जन्य होनेके कारण दुःखरूप होनेपर भी उसमें पुनर्मिलन [सम्भोग] को सम्भावना बनी रहनेसे सुखात्मक [कहा गया है। इस पंक्ति में ग्रन्थकारने करुण तथा विप्रलम्भ शृङ्गारका भेद दिखलाया है। करुण१. तालिकार्यत्वात् । २. स्पुर्ना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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