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________________ का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेंक: [ २६५ परगतविभावाद्यनुक्रियायां च पररज्जनार्थ प्रवृत्तस्य नटस्य रसाभावेऽपि स्तम्भस्वेदादयो भवन्तीति, नैषां रसनान्तरीयकत्वमाशङ्कनीयम् । तेषां परगतरसजनकत्वेनाकार्यत्वात् । नटगता हि स्तम्भादयः प्रेक्षकगतरसानां कारणम् । प्रेक्षकगतास्तु कार्याणि । परोदं चार्थं बुभुत्सुना परोक्षार्थ-नान्तरीयके लिङ्गस्वरूपे निपुणेन प्रतिपत्त्रा भाग्यम। उपपादन किया है । यह सिद्धांत अन्य सिद्धांतोंसे विलक्षण है । अन्य सिद्धांतोंमें रसको साक्षात्कारात्मक ब्रह्मानन्द-सहोदर माना गया है। परन्तु यहाँ रसकी परोक्षात्मक मौर परस्थ प्रतीतिका उपपादन किया गया है। पंक्तियों का अर्थ निम्न प्रकार है दूसरोंके मनोरञ्जनकेलिए, दूसरोंमें [अर्थात् अनुकार्य राम प्रादिमें] रहनेवाले विभावके अनुकरणमें प्रवृत्त होनेवाले नटमें रसका प्रभाव होनेपरभी स्तम्भ स्वेदावि [अनुभाव] होते हैं इससे उनके रसके अविनाभूत न होनेकी शङ्का नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वे [अर्थात् नटगत स्तम्भ स्वेदादि अनुभाव] परगत [अर्थात् सामाजिकमें रहनेवाले] रसके जनक होनेसे [रसके] कार्य नहीं [अपितु कारण होते हैं। नटगत स्तम्भ प्रादि सामाजिकगत रसोंके कारण होते हैं। सामाजिकगत [स्तम्भ प्रावि] के [रस के] कार्य होते हैं । अनुमितिवाद __ ग्रन्थकारने यहाँ यद्यपि नामतः किसीके मतका उल्लेख नहीं किया है किन्तु उनके इस लेखसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस विषय में शंकुकके अनुमितिवादका अनुसरण कर रहे हैं । परन्तु इनका अनुमितिवाद भी भरत सूत्रके व्याख्याता प्राचार्य शंकुकके अनुमितिवादसे कुछ भिन्न-सा है। शंकुकके मतमें नटगत अनुभावादिसे रसकी अनुमति मानी गई है । परन्तु यहाँ सामाजिकगत अनुभावादिके द्वारा उसकी अनुमतिका प्रतिपादन किया गया है । परोक्ष अर्थको जाननेको इच्छा रखने वालेको परोक्ष प्रर्थके अविनाभूत लिंगके स्वरूपके समझने में निपुण ज्ञाता होना चाहिए। इस पंक्तिका अभिप्राय यह है कि परस्थ रसका अनुमान करने वाला व्यक्ति इस विषयको भली प्रकार समझता हो कि अमुक प्रकारके अनुभाव अमुक प्रकारकी मनःस्थिति में होते हैं। तभी वह सामाजिक या प्रेक्षकगत विशेष प्रकारके अनुभावोंको देखकर उसमें शृङ्गार वीर मादि विशेष रसोंका अनुमान कर सकता है। इस प्रकार ग्रन्थकारने यहाँ परगत रसके अनुमानका प्रकार तो दिखला दिया। किन्तु प्रेक्षकगत अनुभावादिसे रसकी प्रतीति किसको होती है यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है। सभी प्रेक्षकोंको एक-दूसरेमें रहने वाले रसकी परोक्ष प्रतीति होती है यही एक समाधान इस प्रश्नका हो सकता है किन्तु वह कुछ उचित प्रतीत नहीं होता है । रसको प्रतीति सामाजिकको साक्षात्कारात्मक होती है तभी उसका प्रास्वादन बन सकता है। परोक्ष ज्ञानको प्रास्वादन नहीं कहा जा सकता है । अतः यह सिद्धांत युक्तिसंगत नहीं है। दूसरा समाधान, नटमें अनुभावोंकी स्थिति अनुभावोंके द्वारा रसकी प्रतीति होती है इस सिद्धांत के विषय में यह शंका उठाई गई थी कि अनुभावोंको रसोंका प्रविनाभूत या नान्तरीयक नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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