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________________ ६० ] नाट्यदर्पणम् [ का० २७, सू० २३ इति नेपथ्य पात्रेण बन्दिना काननस्थस्योदयनवस्तुनः सागरिकां प्रति सूचनात् चूलिका ॥ २६ ॥ अथाङ्कावतारं लक्षयितुमाह- [ सूत्र २३ ] - - मोऽङ्कावतारो यत् पात्रैरङ्कान्तरमसूचनम् । पात्रान्तराभावेन यस्यैवाङ्कस्य पात्रैरविच्छिन्नार्थतया सूचनीयार्थस्याभावात् प्रवेशक विष्कम्भक सूचनारहितमङ्कान्तरं भवति, स द्वितीयाङ्कस्यावतारणादृङ्कावतारः । यथा मालविकाग्निमित्रे प्रथमेऽङ्के -- "विदूषकः -- तेन हि दुवे वि देवीए पेक्खागि गइब संगीदोबकरणं गहिब तत्तभवदो दृदं विसज्जेथ । अथवा मुदंगसद्दो य्येव णं उत्थावइस्सदि । [तेन हि द्वावपि देव्याः प्रेक्षागृहं गत्वा सङ्गीतोपकरणं गृहीत्वा तत्रभवन्तौ दूर्त विसर्जयेताम् | अथवा मृदङ्गशब्द एव तमुत्थापयिष्यति इति । संस्कृतम् ] ।” इत्युपक्रमे मृदङ्गशब्दश्रवणानन्तरं तान्येव सर्वाणि पात्राणि द्वितीयाङ्कमारभन्ते इति । अन्ये तु यत्र अन्ाङ्कानां बीजलक्षणोऽर्थोऽवतार्यते तमङ्कावतारमामनन्ति । यथा रत्नावल्यां द्वितीयोऽङ्कः । तत्र हि -- यहाँ नेपथ्यवर्ती चारण रूप पात्र के द्वारा सागरिकाके प्रति उद्यानमें स्थित उदयन रूप वस्तुके सूचनसे चूलिका [ बनती] है । इस प्रकार इस एक ही कारिका में ग्रन्थकारने 'अङ्कमुख' श्रौर 'चूलिका' इन दो अर्थोपक्षेपकों के लक्षण सुन्दरता के साथ प्रस्तुत किए हैं ।। २६ ।। श्रङ्कावतारका लक्षण -- Ma [थकार ] श्रङ्कावतारका लक्षरण करनेकेलिए कहते हैं [ सूत्र २३ ] -- जो [पूर्वं श्रङ्कके] पात्रोंके द्वारा [ अन्य किन्हीं पात्रोंके प्रागमनकी foresee प्रादि श्रर्थोपक्षेपकोंके माध्यम से ] सूचना दिए बिना [ पूर्व श्रङ्कोंके पात्रोंसे ही ] दूसरे अङ्कका प्रारम्भ होता है उसको 'प्रङ्गावतार' कहते हैं । [नवीन में जानेवाले नए ] दूसरे पात्रोंके न होनेके कारण और सूचनीय अर्थकर प्रभाव होनेसे प्रवेशक, विष्कम्भक प्रादिके बिना ही जिस [पूर्ववर्ती] अङ्क के पात्रोंके द्वारा श्रविच्छिन्न रूपसे नए प्रङ्कका प्रारम्भ किया जाता है वह द्वितीय प्रङ्कका प्रवतारण कराने वाला होनेसे 'श्रङ्कावतार' कहलाता है। जैसे मालविकाग्निमित्र [नाटक] के प्रथम श्र [के अन्त] में [ निम्न वाक्य श्राता है ]-- "विदूषक - - इसलिए श्राप दोनों देवीको रङ्गशाला में जाकर और सङ्गीतके साजको सँभालकर [यहाँ हम लोगोंके पास ] दूत भेज दीजिएगा। प्रथवा [दूत भेजनेकी प्रावश्यकता नहीं होगी क्योंकि प्रापके] मृदङ्गका शब्द हो हम सबको उठा [कर सङ्गीत सुननेकेलिए आपके पास पहुँचा ] देगा ।" [प्रथम के अन्त में] इस प्रकारका उपक्रम करके मृदङ्ग शब्दके अवरणके बाद वे ही सब पात्र द्वितीय प्रङ्कका प्रारम्भ करते हैं । दूसरे प्राचार्य तो जिस में श्रन्य [सब] प्रङ्कोंके बीजभूत अर्थको अवताररणा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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