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का० २६, सू० २२ ]
प्रथमो विवेकः
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'वस्तु' इति कस्यचिदर्थस्य सूचनमुपक्षेपः । 'पात्रैः' स्त्री-पुंसैः । 'नेपथ्यसंस्थितैः' यवनिकान्तर देशस्थायिभिः । सा चूडेव चूलिका । रङ्गाभिनेयार्थस्य नेपथ्यपात्रोक्तेः शिखाकल्पत्वात् । यथा 'उत्तररामचरिते' द्वितीयाङ्कस्यादौ"स्वागतं तपोधनायाः । ततः प्रविशति तपोधना ।"
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अत्रे नेपथ्यपात्रेण स्त्रिया वासन्तिकया श्रात्रेयीवस्तुनः सूचनात् चूलिका | यथा वा 'नलविलासे' द्वितीयाङ्कस्यादौ
"स्वागतं सपरिच्छदाय कलहंसाय । ततः प्रविशति कलहंसो मकरिकाप्रभृतिकश्च परिवारः ।”
अत्र नेपथ्यपात्रेण पुंसा शेखरेण कलहंसादिवस्तुनः सूचनात् चूलेति । यथा वा रत्नावल्यां
"अस्तापास्तसमस्तभासि नभसः पारं प्रयाते रवौ
आस्थानों समये समं नृपजनः सायन्तने सम्पतन् । सम्प्रत्येष सरोरुह तिमुषः पादांस्तवासेवितु प्रीत्युत्कर्ष कृतो दशामुदयनस्येन्दोरिवोदीक्षते ॥"
us 'प्रङ्कास्य' का उदाहरण दिया है इसमें 'छिन्नाङ्क' पद विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है । इसी पदके द्वारा श्रङ्कास्य और श्रावतारका भेद होता है । प्रङ्कास्यमें अगला
पूर्व से सम्बद्ध रूपमें प्रारम्भ होता है और अङ्कावतार में पूर्व के अंग रूपमें ही नया प्रङ्क प्रारम्भ होता है। यहां इन दोनोंका भेद है ।
'वस्तुन:' प्रर्थात् किसी अर्थका 'सूचन' प्रर्थात् उपक्षेप करना । 'पात्रः' अर्थात् स्त्री-पुरुषोंके द्वारा । 'नेपथ्य संस्थितः' अर्थात् यवनिकाके भीतर स्थित 'चूडा' श्रर्थात् शिखाके समान होनेसे 'चूलिका' है। क्योंकि नेपथ्यको उक्ति रङ्गमें अभिनय किए जानेवाले श्रर्थकी शिलाके समान होती है । जैसे उत्तररामचरितके द्वितीय प्रके प्रादिमें
[नेपथ्यमें] तपोधनाका स्वागत है ।" इसके बाद तपोधना प्रवेश करती है ।"
इसमें नेपथ्य में स्थित वासन्तिकका रूप स्त्रीपात्रके द्वारा श्रात्रेयी रूप वस्तुके सूचित होनेसे यह 'चूलिका' [का उदाहरण] है ।
प्रथवा जैसे नलविलासके द्वितीय अङ्कके श्रादिमें [ भी चूलिका दी गई है ]- "सपरिवार कलहंसका स्वागत है । इसके बाद कलहंस और मकरिका आदि परिवार प्रविष्ट होता है ।" इसमें नेपथ्यवर्ती 'शेखर' नामक पुरुषपात्र के द्वारा कलहंसादि वस्तुके सूचित होने से 'धूलिका है ।
अथवा जैसे रस्नावलीमें - [प्रथम प्रङ्कमें ]
"अपनी समस्त प्रभाको प्रस्ताचलपर बिखेरकर, सूर्यके श्राकाशके पार चले जानेपर, सायंकाल के समय सभा मण्डप में एक साथ प्रविष्ट होते हुए सारे राजा कमलोंकी कान्तिका हरण करने वाले [श्रर्थात् कमलोंके समान सुन्दर ] और अत्यन्त आनन्द [ प्रत्युत्कर्ष ] को प्रदान करने वाले [चन्द्रमा की किरणोंके समान कमल-शोभापहारी और श्राह्लादकारक ] सतत उदयशील are पावोंके समान प्राप 'उदयन' के [पादोंकों] चरणोंको सेवा [उपासना ] करनेकेलिए बेल रहे हैं।
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