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________________ ३६४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १५४, स० १३० "नमोऽस्तु सर्वदेवेभ्यो द्विजातिभ्यश्च वै नमः । जितं सोमेन वै राज्ञा शिवं गो-ब्राह्मणाय च ॥ ब्रह्मोत्तरं तथैवास्तु हता ब्रह्मद्विषस्तथा । - प्रशास्त्विमां महाराजः पृथिवीं च ससागराम् ॥ राष्ट्र प्रवर्धतां चैव रङ्गस्याशा समृध्यतु । प्रेक्षाकर्तुमहान धर्मो भवतु ब्रह्मभाषितम् ।। काव्यकर्तुर्यशश्चापि धर्मश्चापि प्रवर्धताम् । इज्यया चानया नित्यं प्रीयन्तां देवता इति ॥" ना० अ०५, ११०-११३ ॥ अत्र द्वादशावान्तराशीर्वाक्यानि। षभिरिति व्यस्र, अष्टभिरिति चतुरलं रङ्गमपेक्ष्य मध्यमनान्द्या निर्देशः । व्यस्ररङ्ग चोत्तमा द्वादशभिः, अधमा त्रिभिः पदैर्नान्दी । चतुरस्ररङ्ग पुनरुत्तमा षोडशभिः, अधमा चतुभिरिति । नान्दी च पूर्वरङ्गाङ्गानां द्वादश मङ्गं सकलपूर्वरङ्गाङ्गोपलक्षिका । तेन 'नान्द्यन्ते सूत्रधार' इत्यस्य । सकलपूर्वरंगानि तु केषाश्चिल्लोकप्रसिद्धत्वात, केषाश्चिन्निष्फलत्वात, केषांचिदनवश्यम्भावित्वाच्च न लक्ष्यन्ते । नान्दी त्ववश्यम्भावित्वात् , मंगलाभिधानपूर्वकत्वाच्च शुभ ___ समस्त देवताओंको और द्विजातियोंको हमारा नमस्कार है । सोम रूप राजा [अचंवा प्रकाशमान चन्द्रमा की विजय हो तथा गौओं एवं ब्राह्मणोंका कल्याण हो । - इसी प्रकार ब्राह्मणोंकी वृद्धि यह ब्रह्मविद्याको वृद्धि हो । तथा ब्रह्मद्वेषियोंका विनाश हो। और महाराज सागरों सहित इस पृथिवीका शासन करें। राष्ट्रको समृद्धि हो और रंगशालाओंको आशा पूर्ण हो । नाट्यको व्यवस्था कराने वाले [राजा प्रादि] को महान् धर्मकी प्राप्ति हो और [उनके द्वारा] वेदोंका पाठ होता रहे। तथा काव्य की रचना करने वाले [कवियों को यशकी प्राप्ति हो, उनके धर्मको सदा वृद्धि होती रहे । तथा इस यज्ञके द्वारा सदेव देवगण प्रसन्न होते रहें। इसमें प्राशीर्वाात्मक बारह अवान्तर वाक्य हैं। [कारिकामें] 'षभिः ' इस परसे त्रिभुजात्मक रंगको लक्ष्यमें रखकर मध्यम नान्दीका निर्देश किया गया है और 'महभिः' पबसे चतुरस्र मन्डपको ध्यानमें रखकर मध्यम नान्दीका निर्देश किया गया है। त्रिभुजात्मक मण्डपमें उत्तम नान्दी बारह पदोंको [मध्यम ६ पदोंको] और अषम [नान्दी] तीन पदोंकी होती है । पौर चतुरस्त्र मण्डपमें उत्तम [नान्दी] सोलह पदोंको [मध्यम पाठ पदोंको] तथा अधम नान्दी] चार पदोंकी होती है। नान्दी, पूर्वरंगके अंगों में बारहवां अंग है और यहाँ वह पूर्वरंगके सारे अंगोंकी उपलक्षण रूप है। इसलिए 'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' [यह जो नाटकोंमें लिखा जाता है इसकी भी उपलक्षिका है । [पूर्वरंगके अंगोंमेंसे कुछ लोक-प्रसिद्ध होनेसे, कुबके निष्फल होनेसे और किन्हींके आवश्यक न होनेसे होनेसे पूर्वरंगके समस्त अंगोंका लक्षारण हमने यहां नहीं किया है। नान्दीका होना तो प्रावश्यक है इसलिए, और प्रत्येक शुभ कार्यके प्रारम्भमें मंगलाचरण करना ही चाहिए इसलिए नान्दोका लक्षण किया है। इसीलिए [अर्थात् प्रत्येक शुभकार्यके भारम्भमें मंगलाचरणके प्रावश्यक होनेके कारण जो लोग नान्दी को माटकमा अंग नहीं मानते हैं वे] कविगण [भी] नाटकके भारम्भमें 'नान्यन्ते सूत्रधारः' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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