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________________ का० १५५, सू० २३१ ] चतुर्थो विवेकः [ ३६५ कृत्यारम्भस्येति लक्षिता । अत एव कवयो रूपकारम्भे 'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' इति पठन्ति । यत्र तु कविकृता नान्दी न दृश्यते तत्रापि रङ्गसूत्रणकर्तृ कृता द्रष्टव्या । नांदीपाठकाश्च सूत्रधार-स्थापक-पारिपाश्विका इति ॥ १५४ ।। अथ ध्रुवा लक्ष्यते-- . [सूत्र २३१]-प्रवेश-निष्क्रमाक्षेप-प्रसादान्तरसङ्गतम् । चित्रार्थ रूपकं गेयं पञ्चधा स्यात् कविधवा ॥ [२] १५५ ॥ 'रूपकं कविध्रुवा' इति सम्बन्धः । प्रविशतः पात्रस्य रस-भाव-प्रकृति-अवस्थादिकं प्रवेशशब्देनोच्यते। तदनुसारेण श्लेष-समासोक्त्याद्यलंकृतं यद् रूपर्क गीयते सा, 'प्रवेशः' प्रयोजनमस्या इति 'ईकणि' प्रावेशिकी। (१) यथा अनर्घराघवे(क)-"दिणयरकिरणुक्केरो पियायरो को वि जीवलोयस्स । __ कमलमउलंकवाली-कय-महुअर-कड्ढणवियड्ढो । [अर्थात् नान्दी सम्पादनके बाद सूत्रधार प्रविष्ट होता है] इस प्रकार लिखते हैं । [भास प्रादि के नाटकमें] जहाँ कवि द्वारा की गई नान्दी उपलब्ध नहीं होती है वहाँ भी रंगको व्यवस्था करने वाले सूत्रधारकी पोरसे की गई नान्दी समझ लेनी चाहिए। नान्दी-पाठ करने वाले सूत्रधार, स्थापक तथा पारिपाश्विक ये तीन होते हैं । [१] १५४ ।।। अब 'ध्र वा' का लक्षण करते हैं-- [सूत्र १८१]-[पात्रोंके] प्रवेश, निष्क्रमण, [रसान्तरके प्राक्षेप, [प्रस्तुत रसके] उम्ज्वलीकरण और [ नटोंके किसी छिद्र अर्थात् ] त्रुटि [को छिपानेके लिए इन सब के साथ सम्बड जो पद [रूपकं] गाए जाते हैं वे 'ध्रुवा' कहलाते हैं और वह [पूर्वोक्त प्रवेश निजक्रमण प्रादि पाँचके साथ सम्बद्ध होनेसे] 'कविध्र वा' पाँच प्रकारको होती है। [२] [कारिकामें] 'रूपकं कविध्र वा' इस प्रकारका अन्वय करना चाहिए। [रूपकं अर्थात् गेय पदोंको ध्र वा कहते हैं यह अभिप्राय है] । उसका प्रयोजन पात्रोंका प्रवेश निष्क्रमण मादि पांच प्रकारका होता है इसलिए ध्र वा भी पाँच प्रकारकी कही गई है। उनमेंसे पहले पात्रोंके प्रवेशसे सम्बद्ध प्रावेशिकी ध्र वा दिखलाते हैं प्रागे प्रविष्ट होने वाले पात्रके रस, भाष, प्रकृति, अवस्था आदिको यहाँ 'प्रवेश' शब्दसे कहा गया है । उसके अनुसार श्लेष समासोक्ति प्रादिके द्वारा जिस [रूपक अर्थात्] गेय पदका गान किया जाता है वह प्रवेश जिसका प्रयोजन है इस अर्थ में [प्राचार्य हेमचन्द्रकृत व्याकरणके अनुसार] 'ईकण-प्रत्यय करने पर' प्रावशिको [पद सिद्ध होता है । (१) प्रावेशिकी ध्रुवा[प्रवेशिको ध्र वाका उदाहरण] जैसे अनघराघवमें (क) सूर्यदेवका किरण समुदाय जो कमल-कलिकामोंको गोवमें भौका पाकर्षण करने में विवग्ध है, समस्त जीवलोककेलिए कुछ अपूर्व प्रानन्ददायक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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