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________________ अथ चतुर्थो विवेकः अतः परं सर्वरूपकोपयोगि किश्चिदुच्यते[सूत्र २३०]-देव-भूप-सभा-भर्तृ मुख्यानां मङ्गलाभिधा । नित्या रूपमुखे नान्दी पदैः षड्भिरथाष्टभिः ॥ [१] १५४ ॥ ___ 'मुख्य' ग्रहणं सरस्वती-कविप्रभृतीनामुपलक्षणार्थम् । 'मङ्गलाभिधा' सद्भूतगुणोत्कीर्तनं, आशीर्वचनं वा । 'नित्या' एवं विधरूपैव । अपरेषां तु पाठ्यानामुत्थापनादीनां पूर्वरङ्गाङ्गानां प्रयोगवशादन्यथात्वमपि भवति । अवश्यम्भावाद्वा नित्यत्वम् । शेषाणां हि रङ्गाङ्गानां नावश्यम्भावः । अहरहः प्रयोज्यत्वाद्वा नित्यत्वम् । यावद्धि रूपकस्याभिनयस्तावदेषा नान्दी प्रयोक्तव्यैव । 'रूपकस्य' नाटकादेः, 'मुखे' प्रारम्भे, नान्दी । प्रयोगस्थानकथनमेतत् । नान्दीत्वं च मङ्गलाभिधायाःप्रत्यूहापसारणेन समृद्धिंजनकत्वात् । ‘पदानि' वाक्याङ्गानि । केचित्तु पूर्णवाक्यापेक्षयावान्तरवाक्यानि 'पदानि' इत्याहुः । तथा च भरतमुनिर्नान्दी पठति-- ____ अथ नाट्यदर्पणदीपिका चतुर्थो विवेकः भव सब प्रकार के रूपकोंमें उपयोगी कुछ बातें कहते हैं--- [सूत्र २३०]-देवताओंकी, राजाकी, सभाकी तथा स्वामी प्रादिको मंगल-कामना रूप, छः पदोंसे युक्त अथवा पाठ पदोंसे युक्त 'नान्दी प्रत्येक रूपकके भारम्भमें नित्य ही करनी चाहिए। [१] १५४ । 'मुख्य' पदका ग्रहण सरस्वती और कवि माविका उपलक्षण है । 'मंगलाभिधा' अर्थात् विद्यमान सद्गुणोंका कथन करना, अथवा पाशीर्वचन । 'नित्या' अर्थात् (१) सदा इसी प्रकारको [मंगलाभिषा रूप] होती है। पूर्वरंगके, पढ़े जाने वाले 'उत्थापना' मावि अन्य अंगोंमें तो प्रयोगके भेदसे परिवर्तन भी हो जाता है। [किन्तु नान्दीका सभी रूपकोंमें एक ही स्वरूप रहता है । यह नित्या' पदका अभिप्राय है) । (२) अथवा [सब रूपकोंमें नान्दीका] अवश्यम्भाव होनेसे नित्यक्ष कहा है। रंगके अन्य अंगोंका होना प्रावश्यक नहीं है। अथवा (३) प्रतिदिन प्रयोग किए जानेके कारण नान्दोका नित्यत्व कहा है। जब तक रूपकोंका अभिनय रहेगा तब तक इस नान्दीका प्रयोग किया जाना चाहिए। यह 'नित्या' पदका मभिप्राय है] । रूपक' अर्थात् नाटकादिके 'मुख' अर्थात् प्रारम्भमें नान्दी होती है। यह प्रयोगके स्थानका कथन किया गया है। किनोंके बिनाश द्वारा समृद्धिजनक होनेके कारण मंगल-कामना मंगलाचरणको 'नान्दी' कहा गया है । 'पद' अर्थात् वाक्यके अवयव । कुछ लोग पूर्ण वाक्यको हहिसे अवान्तर खड-वाक्योंको 'पद' कहते हैं । जैसाकि [अवान्तर खण्ड वाक्योंको पद मानकर] भरतमुनिने [नाट्यशास्त्र भ०५,११०-११३ में इस प्रकार नान्दीका पाठ दिखलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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