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________________ ( ३ ) होता था । इन प्रवचनों कां बालक चङ्गदेव के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। एक देशना (प्रवचन) पूरी होने पर यह वणिक् कुमार चङ्गदेव प्रत्यन्त विनयपूर्वक प्राचार्य के सामने उपस्थित हुआ । बालक के मामा ' नेमि' ने प्राचार्य से बालक का परिचय कराया। और बालक 'चङ्गदेव' ने उनसे प्रार्थना की कि - 'सुचारित्र्य रूपी जलयान द्वारा इस संसार सागर से पार लगाइए ।' देवचन्द्रसूरि ने बालक की योग्यता और उत्कट इच्छा को देख कर उसके मामा ' नेमि' से कहा कि इसके पिता 'चच्च' को प्रेरणा करो कि वह इसे व्रत ग्रहण की प्राज्ञा दे दे तब हम इस बालक को प्राप्त कर निःशेष शास्त्र परामार्थ का अवगाहन करावेंगे । पश्चात् यह लोक में तीर्थङ्कर जैसा उपकारक होगा' । अन्त में सम्भवतः १०६८ ई० में आठ वर्ष की आयु में बालक 'चङ्गदेव' ने प्राचार्य देवचन्द्र सूरि से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। उस समय उस 'सोहमुह' सौम्यमुख का नाम 'सोमचन्द्र' रखा गया । २१ वर्ष की आयु में १९११ ई० में 'सूरि' पद प्राप्त करने पर उनका नाम 'सोमचन्द्र' से बदल कर हेमचन्द्र हो गया ! यह नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र के गुरु श्राचार्य हेमचन्द्र के प्रारम्भिक जीवन की कहानी है । आचार्य हेमचन्द्र के गौरव का यथेष्ट परिचय इससे मिलता है । 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' की लोकोक्ति के अनुसार प्राचार्य हेमचन्द्र के गौरव के लक्षण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट होने लगे । उनका जीवन क्रमशः विकसित होता हुआ जैन धर्म के एक महान् आचार्य एवं संस्कृत-साहित्य के पूर्व विद्वान् के रूप में लोकप्रतिष्ठा के चरम शिखर पर पहुँच गया था । हेमचन्द्र का राजसम्बन्ध - जैसा कि पहले कहा जा चुका है आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात में सन् १०६० में हुआ था । और १०९८ में उन्होंने प्राचार्य देवचन्द्र सूरि से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। गुजरात में इस समय जयसिंह सिद्धराज का राज्य चल रहा था। जयसिंह सिद्धराज का शासनकाल १०६३ से १२४३ ई० तक रहा। इसके बाद ११४३ से ११७३ तक लगभग ३० वर्ष कुमारपाल में 'अहिल पट्टन' को गद्दी पर राज्य किया । इन दोनों राजाओं के यहां आचार्य हेमचन्द्र को बड़ा गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था । जयसिंह सिद्धराज लगभग उनके समवयस्क थे, प्रतएव उनका सदैव मित्रवत् व्यवहार रहता था । कुमारपाल शिष्य के समान उन पर सदा भक्ति रखते थे। जयसिंहसिद्धराज के शासन में गुर्जर और मालवा राज्यों में लम्बा युद्ध चलता रहा। अन्त में ११३६ ई० में मालवा राज्य के ऊपर गुर्जर राज्य को विजय प्राप्त हुई। इस विजयप्राप्ति के अवसर पर गुर्जर देश की प्रजा ने अपने राजा जयसिंह सिद्धराज का बड़े उत्साह एवं समारोह के साथ स्वागत किया । इस स्वागत समारोह के अवसर पर राजा जयसिंह सिद्धराज का श्राचार्य हेमचन्द्र के साथ प्रथम परिचय हुआ था । यह परिचय उत्तरोत्तर प्रगाढ़ मंत्री के रूप में विकसित होता गया । जयसिंहसिद्धराज के विजय महोत्सव के अवसर पर सभी सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों ने उनका स्वागत किया था । इसी प्रसङ्ग में जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में प्राचार्य हेमचन्द्र ने उनका स्वागत किया था । उनके स्वागत पद्यों में निम्न पद्य विशेष रूप से प्रसिद्ध है--- भूमि कामदुघां स्वगोमयरसैरासिञ्च रत्नाकर ! मुक्ता स्वस्तिक मातनुध्वमुडुप त्वं पूर्णकुम्भी भव । घृत्वा कल्पतरोर्दलानि सरल दिग्वा रणास्तोरणान्याधत्त स्वकरैविजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः । Jain Education International For Private & Personal Use Only ( प्रभावकचरित पृ ३०० ) www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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