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( २ )
प्रन्थकार के गुरु प्राचार्य हेमचन्द्र
प्रस्तुत ग्रन्थ 'नाट्यदर्पण' के निर्माता रामचन्द्र ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में सूत्रधार के द्वारा अपने को प्राचार्य हेमचन्द्र का शिष्य बतलाते हुए अपना परिचय दिया है । जैसे
"सूत्र०-दतः श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रेण विरचितं नलविलासा. भिधानमाचं रूपकमभिनेतुमादेशः।"
[नलविलासस्य प्रामुखे "सूत्र-श्रीसिद्धहेमाभिधान-शब्दानुशासनवेधसः श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रेण विरचितं सत्यहरिश्चन्द्राभिधानमादिरूपकमभिनीय समाजनमनुरजयिष्यामः।"
[सत्यहरिषचन्द्रस्य प्रस्तावनायाम्] सूत्र०-श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रशिष्यस्य प्रबन्धशतक महाकवे रामचन्द्रस्य भूयासः प्रबन्धाः ।"
[निर्भयभीमव्यायोगस्य प्रस्तावनायाम्] इस प्रकार अपने अनेक ग्रन्थों में नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र ने अपने भापको प्राचार्य हेमचन्द्र का शिष्य घोषित किया है । इस 'नाटयदर्पण' की विवृति के अन्त में भी
"शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दोलक्ष्मविधायिनाम् ।
श्रीहेमचन्द्रपादानां प्रसादाय नमो नमः ॥" लिखकर ग्रन्थकार ने अपने गुरु श्री प्राचार्य हेमचन्द्र को नमस्कार करते हुए उनके प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन किया है।
नाट्यदर्पण-कार रामचन्द्र के गुरु, ये माचार्य हेमचन्द्र, जैन धर्म के अनुयायी और बहुत बड़े विद्वान थे। जैन धर्म के शास्त्रीय तत्त्वों के प्रपूर्व-ज्ञाता एवं व्याख्याता होने के अतिरिक्त वे व्याकरण, न्याय, साहित्य प्रादि शास्त्रों के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। इनका जन्म सन् १०९. में गुजरात के अन्तर्गत 'धन्धुका' ग्राम के एक वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम 'चिम' (अथवा चच्च) मोर माता का नाम 'चाहिणी' (अथवा 'पाहिणी) पा। हेमचन्द्र का बाल्यावस्था का राशिनाम 'चङ्गदेव' था। भागे माठ वर्ष की भवस्था में जैन धर्म में दीक्षित होने पर इनका नाम बदल कर 'सोमचन्द्र' प्रसिद्ध हुमा। मोर फिर २१ वर्ष की अवस्था में 'सूरी' पद प्राप्त करने से उनका नाम 'हेमचन्द्र' प्रसिद्ध हुमा। कहते हैं २१ वर्ष की अवस्था में जब इनको 'सूरी' पद प्राप्त हुआ तब इनके शरीर का वर्ण हेम (सुवर्ण) के समान तथा मुख की कान्ति चन्द्रमा के समान थी, इसीलिए इनका नाम हेमचन्द्र रखा गया। ‘सोमप्रभसूरि' विरचित 'कुमारपालप्रतिबोष' की कथा के अनुसार प्राचार्य हेमचन्द्र के सूरिपद की प्राप्ति का महोत्सव नागौर (मारवाड़) में बड़े समारोह के साथ मनाया गया। इस महोत्सव पर होने वाले व्यय का सारा भार नागौर निवासी और प्राचार्य हेमचन्द्र के मक्त व्यापारी 'धनद' ने अपने ऊपर लिया था।
_ 'सोमप्रभसूरि' के अनुसार 'धन्धुका' ग्राम के एक वैश्यकुल में उत्पन्न यह 'चङ्गदेव' बालक 'पूर्णतल्ल-गच्छ' के निवासी श्री देवचन्द्र सूरि' के सम्पर्क एवं प्रभाव से ही श्रमण-सम्प्रदाय में प्रविष्ट हुमा । बालक चङ्गदेव को पायु प्रभी पाठ वर्ष की ही थी। 'देवचन्द्र सूरि' विहार करते हुए उन्हीं दिनों 'बन्द्रदेव' के पाम 'धन्धुका' में पहुंचे। वहां प्रत्येक दिन 'सूरि' का प्रवचन (देशना)
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