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का० ४३, सू०५३ ] प्रथमो विवेकः
[ १११ (४) अथ समाहितिः
[सूत्र ५३]--पुनासः समाहितिः ॥४३॥
संक्षिप्योपक्षिप्तस्य बीजस्य स्पष्टताप्रतिपादनार्थ पुनासो भणितिवैचित्र्यं, सम्यग् अासमन्तात् धानं पोषणं 'समाहितिः'।
यथा वेणीसंहारे--
"[नेपथ्ये)-भो भो द्रुपद विराट-वृष्ण्यन्धक-सह देवप्रभृतयोऽस्मदक्षौहिणीपतयः कौरवचमूप्रधानाश्च यो: श्रूयताम्---
यत् सत्यवतभङ्गभीरुमनसा यत्नेन मन्दीकृतं, यद्विस्मर्तुमपीहितं शमवता शान्तिं कुलस्येच्छता। तद् द्यूतारणिसम्भृतं नृपसुताकेशाम्बराकर्षणैः,
क्रोधज्योतिरिदं महत् कुरुवने यौधिष्ठिरं जम्भते ॥” इति । 'स्वस्था भवन्ति' इति यद्वीजं, तदिदानी प्रधाननायकतगतत्वेन सम्यक् पोष नीतिमिति ॥४३॥ (४) समाधान
अब [चतुर्थ अङ्ग] 'समाधान' [का लक्षण करते हैं]--
[सूत्र ५३]- [संक्षेपमें उपक्षिप्त बीजका) दुबारा [अधिक स्पष्ट रूपसे प्राधान 'समाधान' [कहलाता है। ४३ ।
[उपक्षेप रूप प्रथम अङ्गमें] संक्षेपसे उपक्षिप्त बीजको और अधिक स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन करनेके लिए फिरसे कथन करना अर्थात् विचित्र भाषणशैलीसे [दुबारा कथन करना, 'सम्यग्' भली प्रकारसे और 'पा समन्तात् पूर्ण रूपसे स्थापित करना [इस विग्रहके अनुसार 'समाधान' [समाहिति कहलाता है।
जैसे वेणीसंहारमें--
"नेपथ्यमें-हे द्रुपद, विराट्, वृष्णी, अन्धक और सहदेव प्रादि हमारी प्रक्षौहिणी सेनाके सेनापतियो ! और कौरवोंको सेनाके प्रधानाधिकारियो ! [पाप सब लोग कान खोलकर सुनलें कि-~
बारह वर्ष वनवास तथा एक वर्षके अज्ञातवासका जो व्रत हम पाण्डवोंने लिया है वह कहीं भङ्ग न हो जाय इस प्रकार] सत्यव्रतके भङ्गसे डरनेवाले [युधिष्ठिर ने [अब तक अपनी] जिस [क्रोधाग्नि] को यत्न-पूर्वक दबाए रखा था और शान्त-स्वभाव वाले [युधिष्ठिर] ने फुलकी शान्तिको कामनासे जिसको भूलनेका भी यत्न किया, द्यूतको अररिणयोंसे उत्पन्न और द्रौपदीके केश तथा वस्त्रोंके खींचे जानेसे नरपशु [दुःशासन के द्वारा उद्दीप्त किया हुमा युधिष्ठिरकी वह भयानक क्रोधाग्नि प्राज कुरुकुल रूप वनमें [उसको भस्म कर देनेके लिए] प्रदीत हो रहा है।
इसमें ['स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धार्तराष्ट्राः' मेरे जीवित रहते कौरव कहीं] 'स्वस्थ हो सकते हैं' [अथवा कौरव स्वर्गको भावें] इस रूपमें जिस बीजका प्राधान किया गया था वह इस समय प्रधान नायक [युधिष्ठिर गत रूपसे पूर्ण रूपसे परिपुष्ट हो गया है। [इस लिए यह 'परिन्यास'का उदाहरण है] ॥४३॥
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