________________
११० ]
नाट्यदर्पणम [ का० ४३, सू० ५२ . जनकः-तन् किं भुजदण्डविक्रमाक्रान्तभारतखण्ड अन्यस्य तस्यापि पराजयः सम्भाव्यते?
मतिसागरः- [स्वगतम्] अहो दुरात्मनो राक्षसस्याश्वियं, यदयं रहोऽपि देवस्त इभिधानमुच्चारयन् बिभेति । (प्रकाशम्] देव सम्भाव्यत इति किमुच्यते ? सिद्ध एव किं नाभिधीयते देवेन ।" इति । यथा वा वेणीसंहारे
"चश्चद्-भुजभ्रमित-चण्डगदाभिघातसञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्थानापविद्ध-घनशोणिनशोणपाणि
रुत्तयिष्यति कचांस्तव देवि भीमः ॥” इति । यथा वास्मदुपटे रोहिणीमृगाङ्काभिधाने प्रकरणे प्रथमऽङ्के मृगात प्रति"वसन्तः-कुमार मा शङ्किष्ठाः
__उन्मत्तप्रेमसंरम्भादारभन्ते यदङ्गनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातु ब्रह्मापि खलु कातरः॥" अनुपक्षिप्तोऽर्थो न विस्तायेते, अविस्तारितश्च न निश्चीयते इति त्रयाणामप्येषां उद्देशक्रमेणैव निबन्धः ।
· जनक - तो क्या अपने भुजदण्डके विकमके ही जिसने भारतके तीन खण्डोंको माक्रांत कर लिया है उस [रावरण] की भी कभी पराजय हो सकती है ?
मतिसागर--[अपने मनमें 'स्वगत' कहते हैं] अहो दुष्ट राक्षसराजके शासनका कैसा प्रभाव है कि ये महाराज एकांतमें भी उसका नाम लेने में डरते हैं। [प्रकाशम्] हे राजन् [उसको पराजय] सम्भव है ऐसा क्यों कहते हैं, सिद्ध हो है ऐसा प्राप क्यों नहीं कहते हैं। इसमें [विस्तारित अर्थका 'विशेषेण निश्चयः' अर्थात् सिद्धतया कथन होनेसे यह 'परिन्यास' नामक तीसरे अङ्गका उदाहरण है।
अथवा जैसे वेणीसंहारमें--
हे देवि ! अपनी चञ्चल भुजाभोंसे घुमाई हुई भयङ्कर गवाके प्रहारसे तोड़ी हुई दुर्योधन की दोनों जवानोंके गाढ़े जमे हुए प्रचुर रक्तसे रंगे हुए हाथोंसे ही यह भीम तुम्हारे बालोंको बाँधेगा। इसमें [विस्तारित अर्थका सिद्धवत् कथन होनेसे यह 'परिन्यास' का उदाहरण है ।
अथवा जैसे हमारे बनाए हुए 'रोहिणीमृगाङ्क नामक प्रकरणमें प्रथमाङ्कमें मृगाके प्रति वसन्त कहता है]
वसंत कुमार ! पाप [किसी प्रकारको शङ्का न करें।
उन्मत्त प्रेमके आवेगमें स्त्रियाँ जो [प्रणय-व्यापार] प्रारम्भ करती हैं उसमें विघ्न डालनेका साहस ब्रह्मा भी नहीं कर सकता है।
संक्षिप्त रूपमें बीजके समान] उपक्षिप्त किए बिना अर्थका विस्तार नहीं किया जा सकता है और विस्तार किए बिना निश्चय नहीं किया जा सका है इस लिए [उपक्षेप परिकर तथा परिन्यास] इन तीनों [अङ्गों] का उद्देशकमसे [अर्थात् इसी क्रमसे सन्निवेश करना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org