SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुर्वस्तम्मनसीति विस्मयभरं श्रीसूरिशिष्यः सणान् । मन्या मान्यतमोऽनिशं मतिमतां श्रीरामचन्द्रोऽम्यधात् ।। यह वर्णन, पूर्व वर्णन से भिन्न प्रकार का है। इसके अनुसार श्वेश्वर कपिका पहिले राजा कुमारपाल ने अपनी सभा में सत्कार किया। उसके बाद कषि जा कुमारपाल साथ प्राचार्य हेमचन्द्र की शाला में गए है। वहां उन्होंने प्राचार्य के शिष्यों के परीक्षा के लिए दो समस्याएं पूर्ति करने के लिए रखीं। इनमें से एक समस्या 'याषिद्धा' थी और दूसरी 'शृङ्गाग्रेण थी। इनमें पहिली समस्या की पूर्ति पहिले राजा के महामात्य 'कप' ने की । उसके बाद दूसरी समस्या की पूर्ति हेमचन्द्र सूरि के शिष्य रामचन्द ने की। इन दोनों के समस्या-पूर्ति श्लोकों को ग्रन्थकार ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है नैतस्याः प्रसृतिद्वयेन सरले ! शक्ये पिधातु हशी सर्वत्रापि प लक्ष्यते मुखशशिज्योत्स्नावितानरियम् । इत्यं मध्यगता सखीभिरभितो हग्मीलनात केलिषु, व्याषिद्धा, नयने मुखं च रुदती स्वे गर्हते कन्यका ॥ यह महामात्य द्वारा की गई 'ब्याषिया' समस्या की पूर्ति है। र पचन्द्र द्वारा की गई दूसरी समस्या को पूर्ति निम्न प्रकार है स्वं नो गोत्रगुरुस्तवेन्दुरधिपस्तस्यामृतं तस्करे तेन व्याधशरातुरां मम प्रियामेनां समुज्जीक्य । इत्युक्त मगलाञ्छनस्य हरिणे कारुण्यमाजल्पतः शृङ्गामेण मृगस्य पश्य पतितं नेताम्बु भूमण्डले ।। इनमें से प्रथम श्लोक में कन्यानों की मांखमिचौनी को क्रीडा का वर्णन है। मांड मिचौनी खेलने वाली लड़कियों में एक लड़की की पांखे बहुत बड़ी बड़ी है। इतनी बड़ी कि 'प्रसूतिहयेन' दोनों हाथों से 'पिधातुन शक्ये' ढकने में नहीं पाती है । उससे मांख मिचौनी कैसे खेली जाय। उस लड़की में दूसरा दोष यह भी था कि वह कहीं भी जाकर छिपे, पर उसके सौदर्य की कान्ति चारों मोर फैल जाने से वह छिपी नहीं रह सकती है। इन दोनों कारणों से उस कन्या को 'दृग्मीलन केलि' से निकाल दिया गया-'ज्याषिशा' । पौरवह बेचारी अपने मुख तथा नेत्रों को कोस-कोस कर रोने लगी। दूसरे श्लोक में कोई मग शृङ्गाय से चन्द्रमा में बैठे हुए मग को स्पर्श करते हुए उससे प्रार्थना कर रहा है कि तुम हमारे वंश के बड़े-बूढ़े गुरु हो, चन्द्रमा तुम्हारा स्वामी है। उससे ममत भरे हाथ के द्वारा व्याध के बाण से मतकल्प मेरी प्रिया हरनी को पुनर्जीवित करादो। इस प्रकार कहते हुए करुणामयी प्रार्थना करने वाले मृग की भांखों से मांसू टपकने लगे। इस प्रकार अपनी दी हुई दोनों समस्याओं की तुरन्त प्रस्तुत की गई इन दोनों सुन्दर पूर्तियों को सुन कर विश्वेश्वर पण्डित अत्यन्त प्रसन्न हुए। सपहर्ष निजापन से निपीयाशु पूरिते। महो ! बानाति विश्वेऽस्मिन् कविरेव कवेः श्रमम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy