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एक बार काशी से विश्वेश्वर नामक कवि पण्डित प्रणहिल पट्टन प्राए। यह राजा कुमारपाल के समय की बात है । वे कविवर श्राचार्य हेमचन्द्र की सभा में पहुँचे । उस समय राजा कुमारपाल भी प्राचार्य हेमचन्द्र के पास बैठे हुए थे । विश्वेश्वर पण्डित ने सा पहुँचते ही प्राचार्य हेमचन्द्र को प्राशीर्वाद देते हुए निम्न श्लोकार्द्ध को पढ़ा
पातु वो हेम ! गोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् ।
लोकार्द्ध का अर्थ था कि हे हेमचन्द्र ! दण्ड भौर कम्बल धारण किए हुए गोपाल कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें। कवि विश्वेश्वर ने प्रपनी धार्मिक भावना के अनुसार कृष्ण के द्वारा उनकी रक्षा की बात कही थी। पर प्राचार्य हेमचन्द्र और उनके श्रास-पास की सारी मण्डली तो जैन मतावलम्बिनी थी। उसे तो 'कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें, यह बात कुछ रुचिकर नहीं मालूम पड़ी । उसके स्थान पर यदि 'जिन तुम्हारी रक्षा करें' यह बात कही जाती तो उन्हें प्रच्छा लगता । उस समय कवि रामचन्द्र भी वहीं बैठे थे। उन्हें कृष्ण का यह 'रक्षा करने का गौरव' पसन्द नहीं आया । इसलिए उन्होंने तुरन्त ही शेष प्राधे श्लोक की पूर्ति निम्न प्रकार करके सुना दीषड्दर्शन पशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे ॥
पहिले श्लोकाद्वं में दण्ड और कम्बलधारी गोपाल के रूप में कृष्ण को उपस्थित किया था । रामचन्द्र के श्लोकार्द्ध में यह कहा गया है कि हाथ में लाठी लिए हुए और कंधे पर कमरिया डाले हुए वह गोपाल 'जैन गोचरे' जैनों के यहाँ षड्दर्शन रूप पशुनों को चरा रहा है । विश्वेश्वर कवि के हृदय में श्राशीर्वाद देते समय कृष्ण के प्रति जितना अभिमान व्यक्त हो रहा था, रामचन्द्र के इलोका ने उतनी बुरी तरह कृष्ण की हीनता को प्रकाशित किया है। इस प्रकार यह श्लोक धार्मिक संघर्ष का पुन्दर उदाहरण बन गया है । सहृदय लोगों ने उस समय भी इस का रसास्वादन किया होगा । और प्राजके सहृदयों को भी उसमें एक तीखा ही सही पर विशेष रसास्वादन मिलेगा
"पातु वो हेम ! गोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् । षड्दर्शन पशुग्रामं चारंयन् जैनगोचरे || "
इस घटना का यह विवरण मेरुतुङ्ग आधार पर दिया गया है । चरित्रसुन्दरगणि की घटना का उल्लेख निम्न प्रकार किया है ।
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रचित प्रबन्ध चिन्तामरिण [१० २२६-२७] के 'कुमारपालचरित महाकाव्य' में इसी प्रकार
पञ्चलक्षाणि द्रव्याणां दश चोच्चैस्तुरङ्गमान् । विश्वेश्वराय कवये तुष्टः श्री कुमरो ददौ ॥ साधं नृपतिना सोऽथ विश्वेश्वरकवियो । श्री हेमसूरिशालायां विद्वद्गोष्ठी र सेरितः ॥
श्रालोक्य संसदं सूरेभू रिरिजनावृताम् । स ब्रह्मपरिषत्तुल्या मेनां मेने कवीश्वरः ॥ सूरि-शिष्यक्षाय द्वे समस्ये समार्पयत् । 'व्याषिद्धेति' प्रसिद्धाऽऽद्या 'शृङ्गामेणेति' वापरा ॥ तामाद्यां निरवद्यपद्यरचनाहृद्यः कपर्दी महा इमात्यः पूर्वमपूरयद् गुरुतरप्रज्ञाप्रकर्षोद्धरः ।
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