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________________ ( @) प्राचार्य हेमचन्द्र के द्वारा रामचंद्र का परिचय राजा जयसिंह सिद्धराज के साथ भी हो गया था। एक बार ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता की चर्चा के प्रसङ्ग में राजा जयसिंह सिद्धराज न भने पारिषदों से पूछा कि गर्मी में दिन लम्बे क्यों हो जाते हैं ? 'कथं ग्रीष्मे दिवसा गुरुतरा : ?" लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्तर दिए। उस समय रामचंद्र भी सभा में उपस्थित थे । राजा ने उनका भी अभिप्राय जानना चाहा। रामचन्द्र ने उनके प्रश्न का उत्तर दिया। वह उत्तरं उस समय की सामन्ती परम्परा के अनुसार और कवि रामचन्द्र को कवित्व प्रतिभा के अनुरूप था । रामचन्द्र ने राजा के प्रश्न का उत्तर निम्न श्लोक द्वारा प्रस्तुत किया । देव ! श्रीगिरिदुर्गमल्ल ! भवतो दिग्जैत्रयात्रोत्सवे, धावद्वी रतुरङ्ग निष्ठुर खुरक्षुण्णक्ष्मामण्डलात् । वातोद्भूतरजोमिलत्सुरसरित्संजातपङ्कस्थली - दूर्वा चुम्बन चंचुरारविहयास्तेनातिवृद्धं दिनम् ।। श्लोक में राजा के प्रताप का वर्णन है। राजा जयसिंह सिद्धराज जब दिग्विजय करने निकलते हैं। तब उनके सैनिकों के घोड़ों के खुरों से उड़ाई गई धूलि श्राकाश-गंगा पर जाती है और उस पर दूब उग आती है। सूर्य का रथ जब प्राकाश गंगा पर पहुँचता है तो सूर्य के घोड़े उस हरी हरी दूब को देख कर उसे खाने के लिए रुक जाते हैं। इसलिए उनको अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँचने में विलम्ब हो जाता है। इसी कारण दिन बड़ा हो जाता है। उत्तर को सुन कर राजा बहुत प्रसन्न हुए। विशेषकर इसलिए कि यह श्लोक कवि का तुरन्त बनाया हुआ श्लोक या भौर उसमे कवि की कल्पना-शक्ति का परिचय मिलता था । इसी प्रकार किसी अन्य अवसर पर राजा जयसिंह सिद्धराज ने रामचन्द्र से कहा कि'सभ्योनगरं वर्णय पट्टनाभिधानम्' 'भरणहिल पट्टन' नगर का वर्णन अभी करो। रामचन्द्र ने तनिक सी देर में ही 'भराहिल पट्टन' नगर के वर्णन में निम्न श्लोक बना कर राजा के सामने प्रस्तुत कर दिया - एतस्यास्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यतानिर्जिता मन्ये नाथ ! सरस्वती जडतया नीरं वहन्ती स्थिता । कीर्तिस्तम्भमिषोच्च दण्डरुचिरामुत्सृज्य वाहावलीतंत्रीका गुरु सिद्धभूपतिसरस्तुम्बी निजां कच्छपीम् ॥ इस श्लोक का भाव यह है कि इस 'अहिल पट्टन' की निवासिनी स्त्रियों की चतुराई से पराजित होकर सरस्वती बिल्कुल मूर्खा बन कर उनके सामने 'पानी भरने लगी । इसीलिए अपनी वीणा की कच्छपी [ नीचे वाले भाग] को सिद्धराज भूपाल के तालाब की कच्छपी के रूप में नीचे छोड़ दिया और वीणादण्ड को राजा के कीर्ति स्तम्भ के रूप में धारण किए प्रोर मेघावली को तंत्री बनाए हुए घूम रही है । Jain Education International यों तो दोनों इलोकों में कुछ गड़बड़ है किन्तु सद्यः निर्मित इलोक होने के कारण वे काफी अच्छे श्लोक है । रामचन्द्र की इस प्रकार की प्रतिभा का परिचय राजा जयसिंह सिद्धराज को घनेक बार प्राप्त हो चुका था। इसलिए राजा ने प्रसन्न होकर 'कवि कटारमल्ल' की उपाधि रामचन्द्र को प्रदान की । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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