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________________ का० ३३, सू० ३५ ] प्रथमो विदेसः प्रथामीषां मुख्यत्वव्यवस्थायां हेतुमाइ-- [सूत्र ३५]-कार्यस्तु मुख्यता । कार्यैः फलं प्रत्युपकारविशेषैः ! पुनर्बीजादिनां मुख्यता बाहुल्यं प्राधान्यं वा निबन्धनीयम् । तत्र बीजबिन्द्वोस्तावन्मुख्यत्वमेव, सर्वव्यापित्वात् । पताका-प्रकरीकार्याणां तु मुख्यफलं प्रत्युपयोगापेक्षया एकस्य योन्त्रयाणां वा मुख्यत्वमन्येषां चामुख्यत्वम् । तत्र पताकाया मुख्यत्वं यथा श्रीशूद्रक-विरचितायां मृच्छकटिकायां पूर्वोपकारोपगृहीतस्य भार्यकस्य । प्रकर्या यथा--वीरनागनिबद्धार्या कुन्दमालायां सौतायास्तद पत्ययोश्च पालन-संयोजनाभ्यां स्वफलनिरपेक्षस्य बाल्मीकेः । उभयोयथा--रामप्रबन्धेषु सुग्रीव-विभीषण जटायु-हनूमदगन्दादीनां च । पताका-प्रकोरल्पत्वे अभावे वा सर्वत्र कार्यस्य मुख्यत्वम् । उपायोकी मुख्यता के नियायक हेतु-- [पांचों उपायोंके लक्षण प्रादि करनेके बाद अब इनकी मुख्यता [और गौणत्व] की व्यवस्थामें हेतु बतलाते हैं - [सूत्र ३५]--[फलके प्रति उपकार विशेष रूप कायोंके अनुसार मुख्यता [निर्धारित] होती है। कार्य प्रर्थात् फलोंके प्रति उपकार-विशेषके द्वारा बीजादि [उपायों] की मुख्यता अर्थात् बाहुल्य अथवा प्रधानत्वकी रचना करनी चाहिए । उन [पाँचों उपायों मेंसे [प्रचेतन उपाय बीज तथा [चेतन उपाय] बिन्दु इन दोनोंके [नाटकमें मादिसे अन्त तक] सर्वत्र व्यापक होनेसे मुख्यता ही होती है। पताका, प्रकरी पौर कार्य [इन तीनों उपायों की तो मुख्य फलके प्रति उपयोगिताको दृष्टिसे [कहीं] एकको [कहीं] दोको अथवा [कहीं] तीनोंकी मुख्यता और शेषकी गौणता [प्रमुख्यता होती है। उनमेंसे पताकाको मुल्यता [का उदाहरण से भी शूद्रक [कवि विरचित मृच्छकटिक [नाटक] में पूर्व उपकारके कारण वशीभूत प्रार्यक [नामक पताकानायक को [मुल्यता पाई जाती है। प्रकरी [ नायक] को [ मुख्यताका उदाहरण ] जैसे वीरनाग विरचित 'कुन्दमाला' [नाटक] में [रामद्वारा परित्यक्ता गभिणी] सीता और उसके [कुश लव दोनों] पुत्रोंका पालन तथा [उन दोनों पुत्रों सहित सीताका रामके साथ] संयोग कराने [रूप कार्य] के द्वारा अपने किसी फलको अपेक्षा न रखनेवाले [ इसलिए प्रकरी नायकके लक्षणसे युक्त ] बाल्मीकिकी [मुल्यता पाई जाती है। [पताकानायक तथा प्रकरीनायक] दोनोंकी [मुख्यताका उदाहरण] जैसे राम-प्रबन्धों में [अर्थात् रामके चरित्रको लेकर लिखे गए नाटकोंमें] सुग्रीव, विभीषण, जटायु, हनुमान प्रङ्गदाविको [मुख्यता पाई जाती है। पताका-नायक तथा प्रकरी-नायकके गौण होनेपर [अल्पत्वे] प्रथवा सर्वथा न होनेपर [प्रभावे वा] सदा कार्यको ही मुल्यता रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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