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नाट्यदर्पणम्
अथ पताकायाः प्रधानत्वे समर्थिते सन्धिप्रसङ्ग निरस्यति-
[ सूत्र ३६ ] - पताकायाः प्रधानत्वेऽनुसन्धिः सूचनादिभिः ||३३||
पताकावृत्तस्य प्राधान्यनिबन्धेऽपि अनुसन्धि-मुख्यवृत्तसन्ध्यनुगतः सन्धिभवति । गौणः सन्धिरित्यर्थः । यद्यपि पताकायाः प्रधानत्वे मुख्ये तिवृत्तवत् सन्धयः स्युस्तथापि तेऽनुसन्धयो मुख्यसन्ध्युपयोगित्वेन गौणत्वात् । श्रपरथा पताका वृतस्य प्रासङ्गिकत्वं न स्यात् । सन्धिसंख्यावृद्धिश्च स्यात् । श्रत एव ते सूचनादिभिर्भवन्ति । आदिशब्दात् क्वचिदूह्यन्ते, लेशतो निबध्यन्ते च । न च मुख्यसन्धिभ्यः पृथग् गण्यन्ते । अनुसन्धिरिति एकवचनमविवक्षितम् । मुख्य निर्वाहयोरवश्यम्भावित्वात् । तेन द्विप्रभृतयोऽनुसन्धयो भवन्ति । यथा 'मयापुष्पके'
दुर्ग भूमिमात्य भृत्य - सुहृदो दाराः शरीरं धनं, मानो वैरिविमर्द-सौख्यममरप्रख्येण सख्योन्नतिः । यस्मात् सर्वमिदं प्रियाविरहिणास्तस्याद्य शक्ता वयं, न स्वेच्छासुलभैः पथोऽपि घटने शैलाभखण्डैरपि ॥
[पाँचों साधनोंमेंसे पताकानायकका भी प्राधान्य कहीं हो सकता है यह बात अभी कही जा चुकी हैं। इस प्रकार ] पताकाके प्रधानत्वका समर्थन करनेपर [ उसके चरित्र में श्रागे कहे जानेवाले ] सन्धियोंकी भी प्राप्ति होती है, उसका निराकरण करते हैं
[ सूत्र ३६ ] - पताकाकी प्रधानता होनेपर [मुख्य सन्धि नहीं होते हैं किन्तु ] सूचना श्रादिके द्वारा अनुसंधि [गौरग संधि] होते हैं । ३३ ।
[ का० ३३, सू० ३६
पताका [tree] के प्राधान्यका वर्णन करनेपर भी [ मुख्य संधि नहीं होते है किन्तु ] 'प्रनुसंधि' अर्थात् मुख्य संधिके अनुगत संधि अर्थात् गौण संधि होते हैं यह अभिप्राय है । afrater [नायक ] के प्रधान होनेपर मुख्य [नायक] के चरित्र के समान [ उसमें भी मुख्य ] संधि होने चाहिए फिर भी वे [मुख्य संधि न होकर ] मुख्य संधिके उपयोगी [श्रङ्ग] होनेसे गौर होनेके कारण 'अनुसंधि' [कहलाते ] हैं । अन्यथा [ यदि पताका नायकके वृत्तमें प्रयुक्त संधिको मुख्य संधि ही माना जाय तो] पताका नायकके चरित्रकी गौरणता [प्रासङ्गिकत्व ] नहीं बनेगी । इसलिए [ गौरण संधि होनेके काररण ] वे [ अनुसंधि ] सूचना श्रादिके द्वारा प्रकाशित होते हैं। आदि शब्दसे [ यह भी सूचित होता है कि ] कहीं [उनकी] कल्पना की जाती है और कहीं अंशतः [ अनुसंधिके रूपमें ] रचना की जाती है । किन्तु मुख्य संघियों से अलग उनकी गणना नहीं की जाती है। 'अनुसंधि:' [पद में प्रयुक्त] एकवचन श्रविवक्षित है। क्योंकि [eater नायकके चरितमें भी] मुख और निर्वहरण रूप दो [ अनुसंधियों ] का होना श्रावश्यक है । इसलिए [एक संधि तो होता ही नहीं है] दोसे लेकर [ तीन-चार प्रादि] अनुसंधि होते हैं। जैसे माया- पुष्पकमें
जिन [ रामचन्द्रजी ] की कृपासे [हमको] दुर्ग, भूमि, श्रमात्य, मित्र, स्त्री, शरीर, धन, मान, शत्रुनाशका सुख और देव-कल्प [ रामचन्द्रजी ] के साथ मित्रता यह सब प्राप्त हुआ है, आज हम प्रियासे विरहित उनके लिए यथेष्ट रूपमें प्राप्त होनेवाले पर्वत के समान बड़े-बड़े शिलाखण्डों से [समुद्रके ऊपर पुल बनाकर ] मार्गका निर्मारण करनेमें भी समर्थ नहीं हो रहे हैं [ यह लज्जा और दुःखकी बात है ] ।
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