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का० ३३, सू० ३६ ] प्रथमो विवेकः
[ ८३ आत्र मुखादिसन्धिनिबन्धनीयं रामेण सह मैत्र्यादिकमभ्युह्यमुपकरुप्य सुग्रीववचनाद् रामशक्तिसम्पन्नाभ्युदयं निर्वहणस्यैव वृत्तमुपनिबद्धमिति । यथा वा राघवाभ्युदये
मित्रं दर्शनमात्रतोऽपि गणितः किष्किन्धमागत्य च, क्षुण्णः क्षुद्रमतिः स साहसगतिर्दत्ता सतारा मही। इत्थं तेन वितन्वता न विहितं देवेन रामेण किं,
तत् सत्यं मम तस्य कर्तुमुचितं प्राणैरपि प्रीणनम् ।। अत्र 'मित्रम्' इत्यादिना मुखं, 'किष्किन्ध' इत्यादिना प्रतिमुखं, 'क्षुएण:' इत्यादिना विमर्शः, 'दत्ता सतारा मही' इति निर्वहणं सुग्रीववचनात् प्रकाशितम् । उत्तरार्धेन तु मुख्य नायकानुयायित्वदर्शनादनुसन्धित्वं ख्यापितमिति ।
प्रकर्यास्तु प्राधान्येऽपि स्वल्पवृत्तत्वात् सन्ध्यनुसन्धिचिन्तैव नास्तीति ।।३।।
यहाँ [अर्थात् इस उदाहरणमें] मुखसंधिमें वर्णनीय रामचन्द्र के साथ मैत्री प्रावि कल्पनीय अर्थको सुग्रीवके वचनसे कल्पना करके, [अर्थात् उसका साक्षात् रूपसे वर्णन न करके रामचन्द्रको शक्तिसे प्राप्त प्रभ्युदरा रूप निर्वहरण [संधिमें वर्णन किए जाने योग्य] वृत्तका ही वर्णन किया है।
___ इस प्रकार इसमें मुखसन्धि तथा निर्वहण संधिके अर्थकोंका दो अनुसंधियोंके रूपमें समावेश किया गया है । इसलिए यह दो अनुसंधियों के समावेशका उदाहरण है। आगे चार अनुसंधियोंके प्रयोगका उदाहरण राघवाभ्युदयसे देते हैं।
अथवा जैसे 'राघवाभ्युदय' [नाटक] में [चार अनुसंधियोंका समावेश निम्न श्लोकमें पताका-नायक सुग्रीवके वृत्तांतमें पाया जाता है]
[जिन रामचन्द्रजीने मुझको देखते ही अपना मित्र मान लिया, [१ मुखसंधि], उसके बाद किष्किन्धामें प्राकर [२ प्रतिमुख संघि], क्षुद्रमति और साहसगति [अर्थात् सृष्टतापूर्वक परदारापहरण आदि कार्य करनेवाले] उस दुष्ट [बालि] का नाश किया [३ विमर्श संषि],
और [मेरी पत्नी] ताराके सहित पृथिवी [अर्थात् मेरा राज्य मुझको] प्रदान की [४ निर्वहरण संघि] । इस प्रकार [मेरे हितके समस्त कार्य] करते हुए भगवान् रामचन्द्रजीने [मेरे लिए क्या नहीं किया [अर्थात् सब कुछ किया, मेरे सारे मनोरथ पूर्ण कर दिए । इसलिए यह बिल्कुल सत्य है कि मुझे अपने प्राणों [के मूल्य] से भी [अर्थात् प्राणोंको देकर भी] उनकी प्रसन्नताका सम्पादन करना चाहिए।
यहां [अर्थात् इस उदाहरणमें] "मित्रम्' इत्यादिसे मुख [संधि], किष्किन्धामें प्राकर इत्यादिसे प्रतिमुख [संघि], 'क्षुण्णः' [बालिको मारा] इत्यादिसे विमर्श [संधि], तथा 'दत्ता सतारा मही' ताराके साथ मेरा राज्य मुझको प्रदान किया इससे निर्वहण [संघि] [इन चार अनुसंधियों को सुग्रीवके वचनसे प्रकाशित किया है। [श्लोकके] उत्तरार्द्धसे [अपना] मुख्य नायकका अनुयायित्व दिखलाकर [उन मुखादि संघियोंका] अनुसंधित्व [गौण संषित्व भी] सूचित किया है।
. प्रकरी [ नायक ] का तो प्राधान्य होनेपर भी [उसका] थोड़ासा ही वृत्त होनेके कारण [उसमें] संधि या अनुसंषि प्राविको चिन्ता ही नहीं होती है ॥ ३३ ॥
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