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________________ [ २४१ का ६३, सू० १४० ] द्वितीयो विवेकः सर्वे ग्वामिन उत्तम-मध्यम-अधमरूपाः । सर्वे रसारच शृङ्गारादयः पर्यायेणात्र विधातव्याः । यदाह कोहल : उत्तमाधममध्याभि-युक्ता प्रकृतिमिलिया। ___ एकहा- द्विहायो वा सा वीथीत्यक्षिसंचिता ।। इति ॥ शंकुकस्त्वधमप्रकृतेर्नायकत्वमनिच्छन् प्रहसन-भाशादौ हास्यरसप्रधाने विटादेर्नायकत्वं प्रतिपादयन् कथमुपादेय: स्यादिति ? 'एकांका' इत्यनेन एकदिवसायोग्यमितिवृत्तमति दर्शयति । द्वाभ्यां पात्राभ्यां उक्ति-प्रत्युक्तिवैचित्र्यविशिष्टा, एकन वा पात्रेण आकाशभाषितसमन्वितेन युक्ता वीथी कविना स्वेच्छया विधेया। मुख-निर्वाहाख्यो सन्धी यस्याम् । सर्वेषां रूपकाणं नाटकादीनां वक्रोक्त्यादिसंकुल-त्रयोदशा मवेशेन उपयोगिनी वैचित्र्यकारिका। अत रवान्ते लक्षिता । वक्रोक्तिसहस्रसंकुलत्वेन शृङ्गार-हास्ययोः सूचनामात्रत्वात् कैशिकीवृत्तिहीनत्वम्। अत्र च बहुविधा वक्रोक्तिविशेषा उत्तम-मध्यम-अधमनायकानां व्युत्पाद्यन्ते इति ॥ [२८] ६३॥ [इसमें कहे हुए त्रयोदश अगोंके नाटकादि सारे रूपकोंमें] जानेसे बीथोके समान होने के कारण यह 'बीथो' कहलाती है। उत्तम. मध्यम, अषम रूप सारे स्वामी अर्थात् नायक [इसमें होते हैं] । और शङ्गार प्रादि सारे रस एक-एक करके पर्यायसे इसमें वर्णन किए जाते हैं। जैसा कि कोहलने कहा है-- उत्तम, अधम और मध्यम तीनों प्रकारके पात्रोंसे युक्त एक पात्रके द्वारा अथवा दो पात्रोंके द्वारा सम्पादित [रूपक भेद] 'वीथी' कहलाती है। शंकुक जो अधम प्रकृतिको नायक नहीं मानना चाहते हैं। वे भाण, प्रहसन आदि हास्यरसप्रधान [रूपकों] में विट मादि [अधम पात्रों को नायक [बनाने का प्रतिपादन करके कैसे श्रद्धय वचन हो सकते हैं ? [अर्थात शंकुक एक ओर तो यह कहते हैं कि प्रथम प्रकृतिका नायक नहीं होना चाहिए। दूसरी ओर भारण प्रहसन प्रादिमें अधम प्रकृतिके विटाविको ही नायक बनानेका विधान करते हैं। ये दोनों बातें परस्पर विपरीत हैं इसलिए उनका कथन उपादेय नहीं हो सकता है । इसलिए वहां वीथी में जो अधम प्रकृतिके भी नायक होने की बात कही गई है वह अनुचित नहीं है। 'एकांका' इस पदसे एक दिनमें समाप्त होनेवाले पाख्यान-भागका ही इसमें वर्णन होना चाहिए यह दिखलाया है। उक्ति-प्रत्युक्ति द्वारा वैचित्र्य युक्त दो पात्रोंसे, अथवा प्राकाशभाषितका अवलम्ब करने वाले एक ही पात्रसे युक्त 'वीथी' कवि अपनी इच्छाके अनुसार बना सकता है । मुख तथा निर्वहण नामक दो ही सन्धि इसमें होते हैं । वक्रोक्ति प्राविसे युक्त प्रयोदश वीथ्यङ्गोके नाटकादि [समस्त] रूपकोंमें उपयुक्त होनेसे उन सबको उपयोगिनी अर्थात वैचित्र्यसम्पादिका [वीथी होती है। इसीलिए सबके अन्त में उसका लक्षण किया गया है। सहस्रों प्रकारको वक्रोक्तियोंसे युक्त होनेके कारण हास्य तथा शृङ्गारको सूचनामात्र होनेसे इसको कैशिकोवृत्तिहीन कहा जा सकता है। इसमें उत्तम, मध्यम तथा मधम नायकों के [अपनी-अपनी रुचिके अनुकूल] अनेक प्रकारके वक्रोक्ति-भवोंका [सामाजिकको] शान १. त्येकादश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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