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________________ का० ६०, सू० १०० ] प्रथमो विवेकः [ १७३ , "सव्याजैः शपथैः प्रियेण वचसा चित्तानुवृत्त्या भृशं, वैलक्ष्येण परेण पादपतनैर्वाक्यैः सखीनां मुहुः । प्रत्यासत्तिमुपागता मम तथा देवी रुदत्या यथा, प्रक्षाल्येव तयैव वाष्पसलिलैः कोपोऽपनीतो यथा ।" तथा कत्यारावणे सप्तमांकस्य पूर्वार्द्ध--- "कष्टं भोः कष्टम्-- रामेण प्रलये नेव महासत्त्वेन लीलया। पातितोऽयं दशशिराः शृङ्गवानिव पर्वतः ॥” इति । अत्र विरोधिनो रावणस्य विनाशनमिति । एके तु निरोधप्रशमनं शक्तिमामनन्ति । यथोत्तरचरिते - "लवः-विरोधो विश्रान्तः प्रसरति रसो निर्वृतिघनः, तदौद्धत्यं क्वापि व्रजति विनयः प्रह्वयति माम् । झगित्यस्मिन् दृष्टे किमपि परवानस्मि यदि वा, महाघस्तीर्थानामिव हि महतां कोऽप्यतिशयः ।।" इति । एतदप्यत्रैवान्तर्भूतम् । प्रसादने प्रसत्तेरपि भावात् । अस्ति चात्र लवस्य क्रुद्धस्य मनःप्रसत्तिरिति । "बहाने बनाकर शपथोंके द्वारा, प्रिय वचनोंके द्वारा, सर्वथा चित्तके अनुसार अनुगमन करनेके द्वारा, अत्यन्त लज्जाके [अनुभव या प्रकाशन] द्वारा, पैरोंपर पड़कर और बार-बार सखियोंके कहनेपर भी प्रिया [वासवदत्ता] उस प्रकार प्रसन्नताको प्राप्त नहीं हुई जैसी कि स्वयं रोती हुई उसने आंसुओंसे मानो क्रोधको धोकर बहा दिया हो [अर्थात् वासवदत्ताके इन मासुभोंने मानो उसका सारा क्रोध बहा दिया हो।" यह प्रथम प्रकारके प्रसादन रूप शक्ति अङ्गका उदाहरण है । दूसरे लक्षणके अनुसार शक्ति प्रङ्गका उदाहरण मागे देते हैं और जैसे 'कृत्यारावरण के सप्तमांकके पूर्वाद्ध में"अरे ! बड़े दुःखकी बात है कि प्रलयके समान महा-शक्तिशाली रामचन्द्रने भृङ्गोंसे युक्त पर्वतके समान इस दश शिरोंवाले रावणको अनायास ही गिरा दिया।" इसमें विरोधी रावणका विनाश कहा गया है [अतः यह दूसरे लक्षणके अनुसार शक्ति नामक अङ्गका उदाहरण है] । कुछ लोग विरोषके प्रशम को 'शक्ति' कहते हैं । जैसे 'उत्तरचरित'में-- "लव--[रामचन्द्रजीके माजानेसे चन्द्रकेतुके साथ होनेवाले युद्ध में हम दोनों अर्थात लव और चन्द्रकेतुका] विरोध शान्त हो गया और आनन्द प्रदान करने वाला प्रेम [रस] उत्पन्न हो रहा है । वह उद्दण्डता [जो मेरे अब भीतर थो] न जाने कहाँ चली गई, और विनय मुझे [उसके सामने] विनम्र बना रही है । इनको देखकर न जाने क्यों मैं तुरन्त ही परवश-सा हो गया हूँ अथवा तीर्थोकें समान महापुरुषोंका कुछ अनिर्वचनीय प्रभाव होता है। . , इसमें यह [विरोष-विश्रान्ति भी इसी [क्रुद्ध-प्रसादन] में अन्तर्भूत हो जाती है। प्रसादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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