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________________ १७४ ] नाट्यदर्पणम् [ का०६०, सू० १०० प्रकृताभिप्रायविरुद्धाचरणहेतुरभिप्रायो भावान्तरमङ्ग अत्रान्य मन्यन्ते । यथा तापसवत्सराजे षष्ठेऽङ्क-यौगन्धरायणस्य वासवदत्तां मरणाध्यवसायानिवर्तयितु भावः । तद्विरद्धा चिताविरचनक्रिया अभिप्रायान्तरात् कृतेति भावान्तरम् । तत्र हि-- "यौगन्धरायणः--भद्र विनीतक ! रचय चिताम् ।" इति । अन्ये तु शक्तेः स्थाने आज्ञां पठन्ति । युक्तायुक्तमविचार्य क्रोधाद् यदाज्ञापनं सा आज्ञा । यथा कृत्यारावणे त्रिजटया दारुणिकभिधाना राक्षसी पृष्टा-- त्रिजटा-दारुणिए किं तुम भणासि । [दारुणिके ! किं त्वं भणसि । इति संस्कृतम् ] । दारुणिका--अय्ये तियडे ! अवि नाम अप्पडिहदा आणा मम सरीरे निवडिस्सइ न उण ईदिसं अकज्जं करइस्सं । [अयि त्रिजटे ! अपि नाम अप्रतिहता आज्ञा मम शरीरे निपतिष्यति न पुनरीदृशमकार्य करिष्यामि । इति संस्कृतम्] । त्रिजटा--तहा वि तुमं दारुणि त्ति वुच्चसि । [तथापि त्वं दारुणिका इत्युच्यसे । इति संस्कृतम् ] (पुनः क्रमान्नेपथ्ये-) में [प्रसत्ति] प्रसन्नताके भी पा जानेसे । और यहाँ कुद्ध लवके मनको प्रसत्ति अर्थात् प्रसन्नता हैं। [अतः यह क्रुद्ध प्रसादन रूप शक्तिके भीतर ही पा जाता है। उसका अलग लक्षण करने को प्रावश्यकता नहीं है। अन्य लोग प्रकृत अभिप्रायके विरुद्ध प्राचरणके हेतुभूत अभिप्राय-रूप भावान्तरको इसके स्थान पर अङ्ग मानते हैं। जैसे तापसवत्सराजके षष्ठ अङ्कमें यौगन्धरायणका वासघदत्ताको मरणसे बचाने का अभिप्राय है। किन्तु उसके विपरीत चिता बनानेकी क्रिया दूसरे अभिप्रायसे कराई है। इसलिए वह भावान्तर [अङ्ग का उदाहरण है। जैसे कि वहाँ यौगन्ध रूपण कहते हैं] "यौगन्धरायण--हे भद्र विनीतक ! चिता बना दो। यह [यौगन्धरायणका वचन उनके प्रकृत अभिप्रायके विपरीत होनेसे भावान्तरका उदाहरण है ] । ___अन्य लोग शक्तिके स्थानपर प्राज्ञा [नामक अङ्ग] को रखते हैं। उचित-अनुचितका विचार किए बिना क्रोधसे जो प्राग दे देना है उसको प्राज्ञा [अङ्ग] कहते हैं। जैसे कृत्यारावरणमें त्रिजटा दारुरिणका नामको राक्षसीसे पूछती है । त्रिजटा--हे दारुणिके ! तुम क्या कह रही हो ? दारुरिणका--हे पायें त्रिजटे ! [रावरणको] अप्रतिहत प्राज्ञा मेरे शरीरपर भले ही गिरे [अर्थात् रावण भले ही मुझे जान से मरवा डाले किन्तु मैं इस प्रकारका अनुचित कार्य नहीं करूंगी। त्रिजटा-फिर भी लोग तुमको दारुणिका [नामसे कहते हैं। फिर क्रमसे नेयथ्यमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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