________________
का० ६०, सू० ६६ ]
प्रथमो विवेकः
[ १७५
“द्दा तियडे ! एसा दे पियसही सीदा भत्तणो मायासिर दस गुप्पत्ती मरणनिच्छया अग्गिं पविसिउकामा । [हा त्रिजटे एषा ते प्रियसखी सीता भर्तुर्मायाशिरोदर्शनोत्पत्तिमरणनिश्चया अग्निं प्रवेष्टुकामा ] |
त्रिजटा - हा हदम्म मंदभाइणी मा दाणि दिव्वेण भत्तुणो आणा संपादीयदि । [ हा हतास्मि मन्दभागिनी । मा इदानीं दैवेन भतु राज्ञा सम्पाद्यते ] | एतस्मादवसीयते सीताव्यापादनाय क्रोधाद रावणेन दारुणिकायै प्राज्ञा
दत्तेति ।
सर्वसन्धिष्वपि मतान्तराणि वृद्धोक्तवात् भणितिभेदाद वैचित्र्यस्य रञ्जकस्वाच्च प्रमाणान्येव । अत एव सर्वसन्धिष्वप्यंग संख्याकरणमुदाइरणपरमिति मन्तव्यमिति । अथ प्ररोचना
[ सूत्र १०० ] - भावसिद्धिः प्ररोचना ।
निर्वहणसन्धी भाविनोऽर्थस्य सिद्धिः सिद्धत्वेनोपक्रमणं प्रकर्षेण रोच्यते दीप्यतेऽनया रूपकार्थं इति प्ररोचना । यथा वेणीसंहारे
पाञ्चालकः - [ 'अहं च देवेन चक्रपाणिना' इत्युपक्रम्य ] कृतं सन्देहेन - पूर्यन्तां सलिलेन रत्नकलशा राज्याभिषेकाय ते कृष्णात्यन्तचिरोज्झिते च कबरीबन्धे करोतु क्षणम् ।
हा त्रिजटे ! तुम्हारी यह प्रिय सखी सीता स्वामी [ रामचन्द्रके] बनावटी शिरको देखनेके कारण देनेके निश्चय करके अग्निमें प्रविष्ट होना चाहती है ।
त्रिजटा - अरे में प्रभागिनी मरी । भगवान् करे इस समय स्वामी [रावरण] की श्राशापूर्ण न हो सके ।
इस [संवाद] से प्रतीत होता है कि रावणने दादरिकाको सीताको मार डालने की आज्ञा दी थी । [ इसलिए यह 'प्राज्ञा' नामक अङ्गका उदाहरण है। क्योंकि वह प्राज्ञा क्रोधावेशमें ही दी गई है।
सभी संधियोंमें [प्रोंके विषयमें] अन्य-अन्य [ लक्षरण प्रस्तुत करनेवाले ] मत वृद्धों द्वारा कथित होनेसे और वर्णन शैली के भेदसे उत्पन्न वैचित्र्यके मनोरञ्जक होनेके कारण प्रमाणभूत [मान्य] ही है । इसीलिए सभी संधियोंमें श्रङ्गोंकी गणना केवल उदाहररण-परक समझनी चाहिए । [अर्थात् उसी प्रकारके अन्य अङ्ग भी हो सकते हैं। वह संख्या निश्चित नहीं है यह समझना चाहिए] ।
अब 'प्ररोचना' [नामक विमर्शसंधिके दशम श्रङ्गके लक्षरण श्रादि करते हैं ] — आगे होनेवाली सिद्धि [ का कथन ] 'प्ररोचना' [कहलाती ] 1
निर्वहण संधिमें आगे होनेवाले अर्थकी सिद्धि, अर्थ या उसको सिद्ध ही मानकर कंथन
करना जिसके द्वारा रूपकका विषय प्रकर्षसे प्रकाशित या दीप्त होता है [ इस व्युत्पत्तिके धनुसारी 'प्ररोचना' [कहलाती] है । जैसे 'वेणीसंहार' में -
पाञ्चालक --- - [ मुझे देव चक्रमाणि कृष्ण ने यहाँसे लेकर ] संदेहकी कोई प्रावश्यकता नहीं है [इस लिए ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org