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नाट्यदर्पणम
[ का० १५५, सृ० २३१
प्रच्युतिः, तदा तत्संवरणावकाशदित्सया इयं गीयते । अस्यां चा भाषि वा रसस्वरूपमनुवर्त्यम् । छिद्राच्छादनमात्रप्रयोजनत्वाच्चास्या न सार्थकपदन्यसनमुपयोगीति शुष्काक्षराख्येवास्यां निबध्यन्ते ।
'संगतं ' प्रवेशाद्यनुरूपार्थम् । 'चित्रो' नानाप्रकारः, सरः काननादि-दिवस-रात्रिसन्ध्यादिः, उत्तम - मध्यमाधमप्रकृतिः गंज- बाजि - सिंहादिर्भावो रत्यादिकश्चार्थो यत्र । अर्थश्च तथा निबन्धनीयो यथा 'उपश्रुति शकुनन्यायेन' प्रत्ययेन प्रस्तुतोपयोगी भवति । 'रूपक' नियतमात्राक्षरं छन्दः । 'गेयं' स्वरतालैर्गानाईम् । पञ्चधा प्रवेशादिभिः विनाश श्रादिके कारण प्राधात लगता है तब श्रथवा (२) किसी उद्धत प्रयोगके कारण मूर्च्छा या चक्कर प्राने लगनेकी सम्भावना होनेपर, प्रथवा (३) वस्त्र, प्राभरण प्राविके गिर जानेपर उस [ त्रुटि, अन्तर या छिद्र ] के छिपानेकेलिए अवसर प्रदान करनेकी दृष्टिसे इस [ श्रन्तरी ध्रुवा ] का गान किया जाता है। [जिससे प्रेक्षकोंका ध्यान उस गानकी धोर खला जाता है और नटको उस त्रुटिको पूरा करने और सँभल जानेका अवसर मिल जाता है ] । इसमें पूर्ववर्ती श्रथवा श्रागे श्रानेवाले रसके स्वरूपका अनुगमन आवश्यक होता है। केवल छिद्रोंका प्राच्छादन करना ही इसका प्रयोजन होता है इसलिए इसमें सार्थक पदके पाठ आदि ही उपयोगी नहीं है [ और सार्थक गेय पद इस समय अकस्मात बनाए भी नहीं जा सकते हैं ] इसलिए केवल [ सार्थक या निरर्थक जैसे भी बन जायें] शुष्क अक्षरमात्रका इसमें जोड़-तोड़ किया जाता है । [ उन्हीं के गानसे सामाजिकोंका चित्त बंटाकर नटको अपनी त्रुटिको छिपाने तथा सँभलनेका अवसर मिल जाता है। ।
[प्रवेश, निष्क्रम, प्राक्षेप, प्रसाद और अन्तर इन पाँचोंके साथ ] 'संगत' प्रर्थात् प्रवेश श्रादि [ पाँचों ] के अनुरूप [ जो गेय पद वह 'ध ुवा' कहलाता है ] । चित्र प्रर्थात् नाना प्रकारका [ श्रर्थात् ] तालाब, बन आदि अथवा दिन रात व सन्ध्यादि अथवा उत्तम, मध्यम व प्रथम प्रकृति प्रथवा हाथी, घोड़ा, सिंह आदि पदार्थ और रत्यादि रूप अर्थ जिस [गेय पद ] में हों [ वह 'चित्रार्थं ' गेय पद 'ध्रुवा' कहलाता है] । इस अर्थको रचना इस ढंगले करनी चाहिए कि जिससे वह 'उपश्रुति- शकुन - न्याय' से अपने [श्रवरणात्मक ] ज्ञानमात्रसे प्रकृतमें उपयोगी हो सके ।
इसमें 'उपश्रुति शकुन न्याय' शब्दका प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि परम्परागत संस्कारोंके अनुसार यात्रापर जाते समय यदि नीलकण्ठ प्रादि किसी विशेष पक्षीका दर्शन या उसकी ध्वनिका श्रवण अथवा जलसे भरे घट आदिका दर्शन हो जाय तो वह कार्य सिद्धिके लिए शुभ शकुन माना जाता है । यद्यपि जलभरे घटको ले जानेवालेका, अथवा पक्षीके शब्द करनेका प्रयोजन यात्रा करनेवालेकेलिए शकुन करना नहीं होता है । उसका प्रयोजन कुछ और ही होता है । किन्तु इन पदार्थोंके दर्शन अथवा शब्दके श्रवरणमात्र से मंगल होता है । इसी प्रकार इन ध्रुवानोंके पदोंका अर्थ च कछ भी हो किन्तु उनके श्रवणमात्र अथवा ज्ञानमात्रसे उनका प्रकृत में उपयोग हो सके ! यह 'उपश्रुतिशकुन न्याय' का अभिप्राय है ।
नियत मात्रा और नियत प्रक्षरों वाला बन्द यहाँ 'रूपक' [ पवसे अभिप्रेत ] है । स्वर और तालसे गाने योग्य 'गेय' कहलाता । [ प्रवा] पाँच प्रकारकी प्रर्थात् प्रवेश [ प्रवेश
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