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________________ का० १५५, सू० २३१ ] चतुर्थी विवेक: [ ३६७ इयमुन्मतस्य चन्द्रस्य मदनविकारगोपनपरस्य अनाक शत्रुभीतस्य राजकुलगमनार्थं निष्क्रमसूचिकेति । (३) प्रस्तुतरसोल्लंघनेन रसान्तरोद्भावनमादेपः । तत्प्रयोजना प्रक्षेपिकी । यथोदात्तराघवे रामस्य प्रस्तुतश्टङ्गारोज्लंघनेन- "अरे रे तापस! स्थिरीभव, क्वेदानीं गम्यते ? स्वर्मम पराभव एकदत्तव्यथः । खरप्रभृतिवान्धवो हलनवातसन्धुक्षितः । तवेह विदलीभवत्तनुसमुच्छलच्छोणितच्छाच्छुरितव दसः प्रशममेतु कोपानलः ॥ " इत्यादि नेपथ्यवाक्याकर्णनेन वीररसाक्षेपः । (४) प्रस्तुतस्य रसस्य विभावोन्मीलनेन निर्मलीकरणं 'प्रसाद' । प्रविष्टपात्रस्य अन्तर्गत चित्तप्रवृत्तेः सामाजिकान प्रति प्रथनं वा 'प्रसाद' । प्रसादप्रयोजना 'प्रासादिकी' । इयं च प्रावेशिक आक्षेपिक्यनन्तरसवश्यं प्रयोज्येति वृद्धसम्प्रदायः । (५) 'अन्तर' छिंद्र', तत्र भवा 'आन्तरी' । अनुकर्तुर्यदा नाशंकित एव धनविधातादिना विधातः, उद्धतप्रयोगाश्रयाद्वा मूर्छा-भ्रमादिसम्भावना, वस्त्राभरणदेर्वा यह मदन विकारको छिपानेके लिए उन्मत्त और कुछ शत्रु से भयभीत चन्द्रगुप्तके रामaari जानेकेलिए [ रङ्गमञ्चसे] निष्क्रमणकी सूचिका है । (३) आक्षेपिकी ध्रुवा - प्रस्तुत रसको हटाकर अन्य रसका उत्पन्न करना 'प्राक्षेप' कहलाता है । वह जिसका प्रयोजन है वह 'आक्षेपिकी' हुई । जैसे 'उदात्तराघव' में - रामचन्द्रके प्रस्तुत शृङ्गाररसको हटाकर [निम्न श्लोक द्वारा वीररसका प्राक्षेप कराया गया है] अरे दुष्ट तापस ! ठहर जा, खड़ा रह, प्रब जाता कहाँ है ? मेरी बहिन [ शूर्पणखा ] के अपमान से उत्पन्न, एक [ प्रसह्य श्रपूर्व ] क्लेशको देनेवाला खर-दूषण प्रावि बन्धुओंके विनाश रूप वायुसे प्रज्वलित किया हुप्रा क्रोधानल प्राज चूर्ण किए जाते हुए तेरे शरीरसे निकलनेवाले रक्तप्रवाहसे जिसका वक्षःस्थल व्याप्त हो रहा है इस प्रकारका बनकर ही शांत होगा । : इत्यादि नेपथ्यगत [ रावरणके ] वाक्यको सुननेसे वीररसका प्राक्षेप होता है । ( * ) प्रासादिकी ध्रुवा - अथवा विभावोंके उन्मीलन द्वारा प्रस्तुत रसका निर्मेलीकरण 'प्रसाद' कहलाता है । प्रविष्ट हुए पत्रको चित्तवृत्तिको सामाजिकोंके सामने प्रकाशित करनाः प्रसाद' माना जाता है। 'प्रसाद' जिसका प्रयोजन है वह 'प्रासादिको' [ध्रुवा] हुई । 'प्रावेशिकी' और 'प्राक्षेपिकी' वाचके इस [प्राविकी ध्रुवा ] का प्रयोग अवश्य करना चाहिए यह वृद्धजनोंकी परम्परा है। (५) आन्तरी ध्रुवा अन्तर अर्थात् त्रुटि [f]। उस [छि या त्रुटि ] के होनेपर प्रयुक्तकी जाने वाली [व] 'प्राप्तरी' [ वा कहलाती] है । [ इसका अभिप्राय यह है कि ]जब अनुकरण करने को (१) जिसकी शंका भी नहीं हो सकती थी इस प्रकारके प्राकस्मिक धन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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