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________________ ३४४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १४३, सू० २०६-२११ (२७) अथ तर्क: [सूत्र २०६]-एकसम्भावनं तर्को वादादेरङ्गनर्तकः । 'वादो' विप्रतिपत्तिस्तस्मात् । आदिग्रहणात् सन्देहबाधकबलोद्भूतपक्षान्तराभावज्ञानविशेष-प्रतीत्यभिलाषादेर्विभावाद् यद्येकस्य पक्षस्य सम्भावनं भवितव्यमनेनेति प्रत्ययः स तर्कः । अङ्गस्य भ्र-शिरोऽङ्ग ल्यादेर्नर्तक इति । (२८) अथ गर्वः[सूत्र २१०]-आत्मन्याधिक्यधीर्वो विद्यादेरन्यरीढया ॥ ॥ [४१] १४३ ॥ 'आधिक्यधीः' परजुगुप्साक्रान्तः स्वस्मिन बहुमानः । श्रादिशब्दाज्जाति-कुललाभ-बुद्धि-वाल्लभ्य-यौवनैश्वर्यादेविभावस्य ग्रहः । 'रीढा' अवज्ञा । तया । उपलक्षणात पारुष्य-असूया-आधर्षण-अनुत्तरदान - अङ्गावलोकन- उपहसन - अलङ्कारव्यत्यासादिभिश्चानुभावैरभिनेतव्य इति ॥ [४१] १४३ ।। (२६) अथौत्सुक्यम[सूत्र २११]-इष्टाभिमुख्यमौत्सुक्यं स्मरणाद्यात् त्वरादिभिः । गद्गदवचन भादिके द्वारा भी इसका अभिनय किया जाता है ।[४०]१४२॥ (२७) अब तकं | व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं] - [सूत्र २०६]-वाद आदिके द्वारा एक पक्षको सम्भावना 'तर्क' कहलाता है । उससे अंगोंका नचाना [रूप अनुभाव उत्पन्न होता है । वाद अर्थात् मतभेद [विप्रतिपत्ति] । उससे [तर्क होता है । प्रादि शब्दसे सन्देहके निवारक [प्रबल प्रमाण] के बलसे उत्पन्न दूसरे पक्षके प्रभावका ज्ञान और विशेष प्रतीतिको इच्छा प्रादि विभावोंसे जो किसी एक पक्षको सम्भावना, अर्थात् यह बात ऐसी होनी चाहिए इस प्रकारको प्रतीति, वही 'तक' कहलाता है । अंग अर्थात् भौंह, सिर या अंगुलि प्रादिका नवाने वाला होता है। (२८) अब गर्व [का लक्षण करते हैं] [सूत्र २१०]--विद्या प्रादिके कारण अन्योंको अवज्ञा करके अपनेको बड़ा समझना 'ग' कहलाता है। [४१] १४३।। 'प्राधिक्यधी:' अर्थात् [अन्यके प्रति घृणाके सहित अपने पापको बड़ा समझना । [विद्यादेः में प्रयुक्त प्रादिशब्दसे जाति, कुल, लाभ, वृद्धि, [किसीको] वल्लभता, यौवन, ऐश्वर्य प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है । 'रोढा' अर्थात् प्रवज्ञा । उससे उपलक्षण द्वारा पारुष्य, असूया, रोब जमाने [धर्षण] उत्तर न देने, अपने] अंगोंका देखने, दूसरेका उपहास करने और अलंकारोंका भिन्न स्थानोंपर प्रयोग करने प्रादि अनुभावोके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है । [२] १४३ ॥ (२६) प्रोत्सुक्य [का लक्षण करते हैं]- [सूत्र २११] - [इष्टके] स्मरण प्रादिके कारण इष्टके प्रति शीघ्रता प्रादिसे प्रभिमुख प्रवृत्त होना 'मोत्सुक्य' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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