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________________ का० १४२, सू० २०७-२०८ ] तृतीयो विवेकः [ ३४३ 'आपदो' दौर्गत्य-न्यकारादेः। स्वान्तनीचत्वं मनःक्लैब्यम् । काण्यं वदनश्यामता। अवगुण्ठनं शिरोगात्रवरणम् । बहुवचनाच्छरीरासंस्कार-गौरवपरिहारवस्त्रमालिन्याद्यैश्चानुभावैरभिनेतव्यमिति ॥ [३६] १४१॥ (२५) अथ ब्रीडा[सूत्र २०७]-व्रीडाऽनुताप-गुर्वादेरधाष्टर्य गात्रगोपकम् । अकृत्यकरणादनु पश्चात् तापो मानसो विवेकः । गुरुर्मातापित्रादिः । श्रादिशब्दात् प्रतिज्ञातानिर्वहण-गुरुव्यतिक्रम-अवज्ञान-असंम्तवादेर्विभावस्य ग्रहः । अधाट थमवैयात्यम् । गात्रगोपनेनोपलक्षणाद् अधोमुखचिन्तन-नखनिस्तोदन-भूविलेखनवस्त्रांगुलीयस्पर्शनादेरनुभावस्य ग्रह इति ॥ (२६) अथ त्रासः[सूत्र २०८]-घोराच्चकितता त्रासः काय-सङ्कोच-कम्पितः । ॥ [४०] १४२ ॥ _ 'घोरं' भीषणं निर्घाताशनिपात-महाभैरवनाद-महारौद्रसत्त्व-शवदर्शनादि । 'चकितता' उद्वेगकारी चमत्कारः । अनर्थसम्भावनातः सत्त्वभ्रशो भयमित्यनयोर्भेदः। बहुवचनात् स्तम्भ-रोमाञ्च- मूर्छा-गद्गद्वचनादिभिश्चायमनुभावैरभिनीयते इति ॥ ॥[४०] १४२ ॥ मापत्तिसे अर्थात् दुर्गति या अपमान मादिके कारण, अपने मनकी नीचता अर्थात् विकलता । कृष्णता अर्थात् मुखका काला पड़ जाना । अवगुण्ठन अर्थात् सिर और शरीरका ढक लेना । बहुवचनसे शरीरका [शुद्धि प्रावि रूप] संस्कारका प्रभाव, गौरवको भुला देना और वस्त्रोंको मलिनता प्रादि अनुभावोंके द्वारा उसका अभिनय होता है ॥[३६] १४१॥ (२५) अब वोडा [का लक्षण करते हैं] [सूत्र २०७] -पश्चात्ताप अथवा माता-पिता प्रादि गुरुजनों [को उपस्थिति के कारण पृष्टताका न करना 'वीडा' कहलाती है और उससे मुख शरीरादिको छिपाता है। मनुचित कार्यके करनेके कारण बादको होनेवाला ताप अर्थात् मानसशान [अनुताप कहलाता है] । माता-पिता आदि गुरु हैं। प्रादि शब्दसे प्रतिज्ञाको पूरा न कर सकने, पुरुषों की मर्यादाका उल्लंघन, अपमान और अपरिचय प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है । अपाष्टर्य अर्थात् उद्दण्डताका प्रभाव । गात्रगोपनके उपलक्षरण होनेसे, उससे सिर झुकाकर सोचने, नाखून चबाने, भूमि कुरेदने, कपड़े या अंगूठो प्रादिके छूने प्रादि अनुभावोंका पहरण होता है । . (२६) अब त्रास [का लक्षरण करते हैं] [सूत्र २०८]- भयंकर वस्तुको देखकर चकित हो जाना 'त्रास' कहलाता है । शरीर के सिकोड़ने और कांपनेके द्वारा [उसका अभिनय किया जाता है] [४०] १४२॥ भयंकर गर्जन, बिजली गिरना, महाभयंकर शब्द, अत्यन्त भीषण प्रारणीका दर्शन मादि 'घोर' पदसे लिए जाते हैं । भयको उत्पन्न करनेवाला पाश्चर्य चकितता' कहलाता है। [उस घोर दर्शनादिसे त्रास होता है। और अनर्थकी होनेकी सम्भावनासे मानसिक बलका नाश 'भय' होता है । यह भय और त्रासका भेद है। बहवचनसे स्तम्भ, रोमांच, मा , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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