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. नाट्यदर्पणम्
[ अव० गणाः कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् । विद्यवेदिनोऽप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः ॥६॥ नासिकान्ते द्वयं श्वित्रं द्वयोवींडा रसज्ञयोः कुचामावः कुरङ्गाक्ष्याः काव्याभावो विपश्चितः ॥१०॥ अकवित्वं परस्तावत् कलङ्कः पाठशालिनाम् ।
अन्यकाव्यः कवित्वं तु कलङ्कस्यापि चूलिका ॥११॥ स्त्रियोंके लावण्यके समान कवित्व, विद्यानोंका प्राणरूप है। इसलिए त्रयोविद्याके जानने वाले विदोंके विद्वान] भी इस [कवित्वकी प्राप्ति के लिए सदा उत्सुक रहते हैं ।।।
[श्लोकके उत्तराखं में कही जाने वाली] दो वस्तुएँ नाकके ऊपर हुए कोढ़के समान है और [इन] दोनोंसे रसज्ञोंको लज्जा होती है। [वे दोनों वस्तुएँ कौन सी यह कहते हैं। उनमेंसे एक तो] मृगनयनी [सन्वरी] के स्तनोंका प्रभाव [अर्थात् छोटे स्तन का होना और दूसरा) विद्वानका काव्याभाव [अर्थात् कवि न होना, ये दोनों नाकपरफे कोढ़ के समान लज्जाप्रद होते हैं] ॥१०॥ . काव्यापहरणकी निन्दा
जैसा कि पिछले श्लोकोंमें कहा गया है बिना कवित्वके केवल कोरे विद्वानोंको भी जगत्में पादर प्राप्त करना कठिन हो जाता है। इसलिए कभी-कभी कवित्वकी प्रतिभा से हीन, किन्तु लोकमें प्रादर पानेके लिए उत्सुक, विद्वान् भी दूसरोंके काव्यको चुराकर अपहरण कर अपने नामसे प्रसिद्ध कर देते हैं और इस प्रकार अनायास ही लोकमें पादर प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार लोगोंकी निन्दा करते हुए ग्रन्थकार अगले श्लोक में लिखते हैं
[पाठशालिनाम् अर्थात् विद्वानोंकेलिए कवि न होना ही बड़ा कलङ्क है किन्तु अन्यों के काव्यसे [अर्थात् दूसरोंके काव्यका अपहरण करके अपने नामसे प्रसिद्ध करनेसे] कवित्व [को प्राप्त करनेका यत्न तो कलरकी भी चूलिका [और भी अधिक बढ़ाने वाली चेष्टा]
राजशेखर प्रादिने इस प्रकारके कवियोंका अच्छा विवेचन किया है। उन्होंने कवियोंके चार भेद किए हैं। (१) उत्पादक कवि, (२) परिवर्तक कवि, (३) आच्छादक कवि
पोर (४) संवर्गक कवि। इनमेंसे 'उत्पादक' कवि उसको कहते हैं जो अपनी प्रतिभाके . बलसे सुन्दर मूतन काव्यकी स्वयं रचना करता है। वही वास्तवमें कवि कहलानेका अधिकारी है। दूसरा 'परिवर्तक' कवि वह कहलाता है, जो किसी अन्य कविके भाव और शब्दों में हेर-फेर करके उसको अपना काव्य बना लेता है। अर्थात् कुछ परिवर्तनोंद्वारा दूसरेकी कवितापर अपने व्यक्तित्वकी छाप लगा देता है। तीसरे प्रकारका कवि 'पाच्छादक' कवि होता है । वह दूसरेकी रचनाको छिपा देता है, प्रकाशित होनेका अवसर नहीं देता है पौर उसीसे मिलती-जुलती या हीन कोटिकी भी अपनी कविताको प्रसिद्ध कर देता है । चौथा कवि 'संवर्गक' कवि कहलाता है। 'संवर्गक' का अर्थ डाकू है। जो दूसरे काव्यको
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