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________________ अव० ] प्रथमो विवेक: रसानिस्यन्दकर्कशाः । श्लेपालङ्कारभाजोऽपि दुर्भगा इव कामिन्यः प्रीणन्ति न भनो गिरः ||७! आरङ्काद् भृपतिं यावदौचितीं न विदन्ति ये । स्पृहन्त कवित्वा खेलनं ते सुमेधसाम् ||८|| नीरस वाणीकी निन्दा श्लेष अलङ्कारसे युक्त होनेपर रस- प्रवाहसे रहित होनेके कारण कर्कश [वियों को] वाणी उसी प्रकार [सहृदयों के ] अनको प्रफुल्लित नहीं करती है जिस प्रकार श्रालिङ्गन करती हुई श्रौर श्रलङ्कारोंसे सजी हुई होनेपर भी [ यौन] रसके न निकलने के कारण कठोर भग वाली [दुभंग] स्त्रियाँ [पुरुषोंको] श्राह्लादित नहीं करती हैं । ७ । इस प्रकार इन तीन श्लोकों में ग्रन्थकारने रसकवियोंकी प्रशंसा करते हुए यह दिखलाया है कि रस ही काव्य या नाटकका सर्वस्व है। उससे रहित नाटकों को अलङ्कार प्रादिसे चाहे जितना भी अलंकृत कर दिया जाय वे सहृदयों को प्राकृष्ट नहीं कर सकते हैं । सहृदयों के आकर्षण के लिए रसप्रधान नाटक ही उपयुक्त हो सकते हैं । कवियों के लिए व्यवहार ज्ञानकी उपयोगिता उत्तम काव्य या नाटककी रचनाके लिए सबसे मुख्य कारण तो कविकी प्रतिभा है । किन्तु उसके बाद कविकी व्युत्पत्ति अर्थात् लौकिक तथा शास्त्रीय व्यवहारका परिज्ञान भी दूसरा अनिवार्य कारण है । मम्मट श्रादिने तो इन दोनों को अलग-अलग कारण न मानकर सम्मिलित रूपसे कारण माना है । और उनके साथ 'काव्यहशिक्षयाभ्यासः' ग्रर्थाद अभ्यासको भी जोड़कर --- Jain Education International [ ५ शक्ति निपुणता लोक-शास्त्र- काव्याद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे || काव्यप्रकाश १-२ : शक्ति अर्थात् कवित्वकी बीजभूत प्रतिभा, लोक, शास्त्र तथा काव्यादिके परिशीलन से उत्पन्न निपुणता अर्थात् व्युत्पत्ति, और काव्यके निर्माण तथा उसकी विवेचना में समर्थ काव्यज्ञोंकी शिक्षा के अनुसार अभ्यास करना ये तीनों मिलकर 'हेतु:' अर्थात् काव्यके कारण होते हैं । 'न तु हेतवः' अलग-अलग तीन कारण नहीं होते हैं। इसी दृष्टिसे यहाँ भी ग्रन्थकार लोकव्यवहार प्रादिकी उपयोगिताका प्रतिपादन करते हुए लिखते हैंनिर्धन से लेकर राजा तक [ के व्यवहार] के प्रौचित्यको जो नहीं जानते हैं और forest कामना करते हैं [अर्थात् कवि बनना चाहते हैं] वे विद्वानोंके उपहासके [मनोरंजनके] पात्र बनते हैं [ लेखनं ते सुमेधसाम् ] ८० विद्वत्ता के साथ कवित्व आवश्यक -- अगले श्लोकोंमें ग्रन्थकार इस बातपर बल देते हैं कि लोक रंजन और लोकमें प्रतिष्ठाकी प्राप्ति केवल विद्वत्ताके द्वारा नहीं हो सकती है । इनकी प्राप्तिके लिए शास्त्रीय विद्वत्ता के साथ कवित्वकी शक्ति भी श्रावश्यक है । कवित्वके बिना कोरा विद्वान् लोकमें न प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है और लोकका ध्यान अपनी श्रोर श्राकर्षित कर सकता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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