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________________ २२६ . ] नाट्यदर्पणम् । का० ७६-८०, सृ० १२८ धर्म-काम-अर्थाः फलं हेतवश्च यस्य । नत्र पत्नीसंयोगरूपस्य शृङ्गारस्य परदारवर्जनादिको धर्मः फलम् । दानादिकम्तु धर्मः स्यादिलाभस्य हेतुः । काम-शृङ्गारशब्दाभ्यां स्त्री-पुसयो रतिः, तद्ध तुश्च स्त्री-पुसादिगुह्यते । तत्र स्त्री-पुसादिरूपशृङ्गारस्य रतिरूपः कामः फलम् । रतिरूपम्य शृङ्गारस्य स्त्री-पुसादिरूपः कामो हेनुः । अत्र च कामशृङ्गारे स्त्री परस्त्री कन्या च ग्राह्या । न पुनः वदारा वेश्या वा । यथा शक्रस्याहल्या । स्वदाराऽऽदौ हि धर्मस्याप्यनुप्रवेशेन केवलस्यैव कामस्य फल-हंतुभावो न ग्यात् । अर्थो राज्य-सुवणे-धन-धान्य-वस्त्रादिः । तत्र पण्यादियोषितां, कपांचित सुभगानां पुसा चार्थफलः शृङ्गारः। वेश्यादिषु च पुसामर्थ हेतुकः शृङ्गारः । देवादीनामपि गन्धर्व-यक्षादिरूपाणां राज्याद्यर्थसमोहा भवत्येव । तदाराधकानां चार्थप्राप्तिः । अत्र च पक्षे कारणे कार्योपचाराद् देवानामर्थशृङ्गारो द्रष्टव्यः । अथवा अर्थो अर्थनीयं परोपकार-प्रातज्ञानिर्वाहादिकम् । तच्च देवादीनामपि भवत्यवेति । [सूत्र १२६ ख]----जीव अजीव और जीवाजीव उभयसे उत्पन्न होने वाला विद्रव [भी] तीन प्रकारका होता है। इनमेसे प्रत्येक अमें एक-एक अर्थात् एक शृङ्गार, एक कपट और एक विद्रव की रचना करनी चाहिए । और [समवकारमें स्रग्धरादिक वृत्त होना चाहिए। [१५] ८०। धर्म, काम और अर्थ जिसके फल [अर्थात् साध्य] तथा हेतु [अर्थात् साधक हैं [वह धर्म-कामार्थफलहेतुकः हुना। उनमेंसे पत्नी-संयोग रूप शृंगारका परदारवर्जन रूप धर्मफल होता है। और दानादि रूप धर्म उस स्त्री [स्वपत्नी के लाभका हेतु होता है। [इस प्रकार स्वपत्नी-संयोग रूप श्रृंगारका फल भी धर्म होता है, और उसका हेतु भी धर्म होता है] । काम और शृंगार शब्दोंसे स्त्र:-पुरुषको रति [रूप फल और उसके हेतु स्त्री और पुरुष दोनोंका ग्रहण होता है। उनमेंसे स्त्री-पुरुष रूप शृंगारका रति रूप काम फल है। और रति रूप शृंगारका स्त्री-पुरुषादि रूप काम हेतु है। और इस काम-शृंगारमें 'स्त्री' पदसे पर स्त्री अथवा कन्याका ही ग्रहण करना चाहिए। अपनी पत्नी अथवा वेश्याका ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे इन्द्रं की अहल्या। अपनी स्त्री प्रादिमें तो धर्मका भी सम्बन्ध होनेसे केवल कामका फलभाव या हेतुभाव नहीं बन सकता है। [इसलिए काम-शृंगारमें 'स्त्री'से परस्त्री या कन्याका ही ग्रहण करना चाहिए यह अभिप्राय है । [अर्थ-श्रृंगार शब्द में] 'अर्ध' से राज्य, सुवर्ण, धन, धान्य वस्त्रादि [का ग्रहण होता है] । यहाँ वेश्याओं और किन्हीं सुन्दर पुरुषोंका अर्थफलक शृंगार होता है। और वेश्यादिके विषयमें पुरुषोंका अर्थहेतुक श्रृंगार होता है। अर्थात् वेश्यादिको श्रृंगारके द्वारा अर्थ-रूप फलको प्राप्ति होती है इसलिए उनका श्रृंगार अर्थफलक होता है। और पुरुषोंको अर्थ द्वारा शृंगारकी प्राप्ति होती है अतः उनका वेश्या विषयक श्रृंगार अर्थहेतुक शृंगार होता है] गन्धर्व यक्षादि रूप देवताओंको भी राज्य प्रादि अर्थको इच्छा होती है। और उनके पाराषकोंको अर्थको प्राप्ति होती है। इस पक्षमें कारणमें कार्यका उपचार मानकर देवतामोंका अर्थ-भंगार समझना चाहिए । अथवा परोपकार प्रतिज्ञा निर्वाह प्रावि अर्थनीय 'अर्थ' कहलाता है। और वह वेवाविकोंमें भी होता है। [इसलिए उनका श्रृंगार अर्थ-शृंगार कहलाता है । ___सरय-सा प्रतीत होने वाला मिथ्या प्रकल्पित प्रपञ्च कपट [कहलाता है। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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