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का० ७६-८०, सू० १२८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२५ निबन्धनीयो यथा अवान्तरवाक्यार्थविच्छिन्नः सर्वाङ्कार्थसम्बद्धार्थश्च भवति । एवं हि पूर्वापरानुसन्धानावधेयधियो व्यवहितार्थानुसन्धानावहितबुद्धयश्च त्रिवर्गसिद्ध युपायव्युत्पत्त्याऽनुगृहीता भवन्ति।
अङ्कान्तरार्थानुसन्धायी च परस्परासम्बद्धासत्वादत्र न बिन्दुर्निबध्यते । 'क्रमाद्' इति प्रथम-द्वितीय-तृतीयक्रमेण अङ्का द्वि-एक-एकसन्धयः । तत्र प्रथमेऽङ्के मुखप्रतिमुखे, द्वितीये गर्भः, तृतीये निर्वहणमिति ।[१२-१३ ] ७७-७८ ॥
अथ शृङ्गारादीनि व्याख्यातुमाह-- [सूत्र १२८]-शृङ्गारस्त्रिविधो धर्मकामार्थफलहेतुकः ।
वञ्च्य-वञ्चक-दैवेभ्यः, सम्भवी कपटस्त्रिधा।[१४] ७६॥ जीवाजीवोभयोत्थः स्याद् विद्रवखिरमीषु तु।
प्रत्येकमकेष्वेककः पद्यं च स्रग्धरादिकम् ॥ [१५] ८०॥ वाले बीजकी रचना करनी चाहिए। उसके बाद [प्रथम तथा द्वितीय] दोनों अङ्गोंको [स्वयंमें समाप्त हो जाने वाले अवान्तर वाक्याके रूपमें एक-दूसरेसे विच्छिन्न रूपमें ग्रथित करना चाहिए। [उसके बाद] तृतीय अङ्कको रचना इस प्रकार करनी चाहिए कि [प्रथम और द्वितीय प्रङ्क रूप] अवान्तर वाक्योंके अर्थमें विच्छिन्न होनेपर भी सब अङ्कोंके अर्थसे सम्बद्ध अर्थ वाला हो जाय । इस प्रकार पूर्वापर अर्थरूपको ग्रहण करने में और व्यवहित पर्वके अनुसन्धान करने में समर्थ बुद्धिवाले [सामाजिक, धर्म प्रथं काम रूप] त्रिवर्गकी सिद्धिके उपायोंके परिज्ञानके द्वारा अनुगृहीत होते हैं।
__ यहाँ [समवकारमें अके] परस्पर असम्बद्ध होनेके कारण, दूसरे प्रडके श्योको जोड़नेवाले 'बिन्दु' की रचना इसमें नहीं की जाती है। 'कमात्' [द्वि-एक-एकसषयः इस कारिका भागमें] क्रमते, इससे प्रथम द्वितीय तृतीयके कमसे पक, क्रमशः दो एक और एक सन्धि वाले होते हैं । उनमें से प्रथम मङ्कमें मुख और प्रतिमुल[दो सन्धि], द्वितीयमें गर्भसन्धि, मोर तृतीय [अ] में निर्वहरण सन्धि होता है। [इस प्रकार तीनों पड़ों में क्रमशः से एक तया फिर एक सन्धि होता है। विमर्श सन्धि समवकारमें नहीं होता है यह बात ७६वीं कारिकामें ही निविमर्श' पदसे कही जा चुकी है। [१२-१३] ७७-७८ ॥
___इन दोनों कारिकामोंमेंसे ७७वीं कारिकामें समयकारके तीनों मकोंको त्रिशृङ्गार, त्रिकपट और त्रिविद्रवसे युक्त कहा गया था। किन्तु इन पदोंका पर्थ वहां स्पष्ट नहीं किया गया था। इसलिए अगली दो कारिकाकोंमें इन तीनों शन्दोंके अर्थको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है । इसमें 'त्रिशृङ्गार' पदसे धर्म, मथं और काम हेतुक तथा तत्फलक तीन प्रकारके शृङ्गारोंका, त्रिकपट पदसे वञ्चयोत्थ, वञ्चकोत्थ तथा देवोत्थ तीन प्रकारके कपटोंका, तथा जीव अजीव और उभयसे उत्थित तीन प्रकारके विद्रवोंका ग्रहण होता है इसी बातको ग्रन्थकार अगली दोनों कारिकामों में दिखलाते हैं
[सूत्र १२६ क]-धर्म काम और मयं जिसके (१) फल तथा (२) हेतु है वह [विभङ्गार] तीन प्रकारका भङ्गार होता है। [इसी प्रकार साप, म तवावसे सत्तल होने वाला कपट [भो] तीन प्रकारका होता है। [१४] ७६ ।
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