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________________ २२४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ७७-७८ सू० १२७ प्रतिनायकौ तत्सहायौ चेति चत्वारश्चत्वारः । ततः सर्वसंख्यया द्वादश द्वादश इति मध्यमा वृत्तिः । तेन क्वचिन्न्यूनाधिक्येऽपि न दोषः । 'तेपाम्' इति द्वादशानां नायकानां पृथग्भूतानि फलानि बध्यन्ते । यथा ' पयोधिमन्थने' हरिवलिप्रभृतीनां लक्ष्म्यादिलाभाः । श्रत एव सहायका आणि सुग्रीवादिवन्नायकत्वेन व्यपदिश्यन्ते । 'त्र्य' इति त्रयोऽङ्का भवन्ति शृङ्गारत्र्यादिविशिष्टाः न त्वेकैक एकस्मिन्नके शृङ्गारादीनामेकैकभावादिति । मुहूर्तो चदिकाद्वयम् । तत्र प्रथमः परमुहूर्तः । द्वितीयो द्विमुहूर्तः । तृतीय एकमुहूर्तः । एके तु प्रत्यकं यथोदितद्विगुणं कालमानमाहुः । I 'निष्ठितार्थाः' कार्थ साध्यफलस्य कान्तरार्थासम्बद्धत्वेन खस्मिन्नेव परिसमाप्रार्थाः । महावाक्ये च परिपूर्ण प्रबन्धार्थ साध्ये फले सम्बद्धाः । सकलप्रबन्धसाध्यफलोपायभूतार्थास्त्रयोऽङ्का इत्यर्थः । इह तावदामुखानन्तरं संक्षेपेणांकत्रयार्थोपक्षेपकं बीजं निबन्धनीयम् । तदनन्तरमंकद्वयं श्रवान्तरवाक्यार्थेन परस्परविच्छिनमायोज्यम् । तृतीयस्त्वं करतथा हैं [ यह एक मत है ] । अथवा प्रत्येक अंतमें १ नायक, २ प्रतिनायक, और उन दोनों के सहायक इस प्रकार चार-चार, और फिर [ तीनों श्रंकोंके चार-चार नायकोंको ] सब मिलाकर बारह [नायक ] होते हैं यह मध्यम मार्ग है । इसलिए किसी अंकमें कम और अधिक [ नायकोंकी संख्या ] होनेपर भी दोष नहीं होता है । 'तेषाम्' अर्थात् उन बारहों नायकोंके फल अलगलग वरिणत होते हैं। जैसे 'पयोधिमन्थन' में विष्णु और बलि आदि [ नायकों] के लक्ष्मी प्रादिकी प्राप्ति प्रादि रूप [ अलग-अलग ] फल [ दिखलाए गए ] हैं । इसलिए [सब नायकोंके अलग-अलग फलोंका निबन्धन होनेसे] सुग्रीव श्रादिके समान सहायक भी नायक रूपसे कहे जाते हैं । 'त्रय' तीन, इससे तीनों प्रकारके शृंगारोंसे विशिष्ट तीन अंक होते हैं यह प्रभिप्राय है । न कि एक-एक अंक में एक-एक शृंगारादि होता है [ इसका अर्थ यह हुआ कि 'समवकार' के प्रत्येक अंकमें तीनों प्रकार के शृंगार, तीनों प्रकारके कपट, और तीनों प्रकारके विद्रव, दिखलाए जाने चाहिए। एक-एक अंक में एक-एक प्रकार के श्रृंगार, कपट और विद्रवका प्रदर्शन नहीं करना चाहिए ] | मुहूर्तसे दो घड़ी [कालका ग्रहण होता ] है । उन [' समवकार' के तीन अंकों से प्रथम [क] छः मुहूर्तका, द्वितीय [अंक ] दो मुहूर्तका और तृतीय [ अंक ] एक मुहूर्तका होना चाहिए [ यह कारिकामें आए हुए षड्युग्म एकमुहूर्ता: स्यु:' इसका अर्थ है ] । इसका अभिप्राय यह है कि इतने कालमें तीनों अंकोंका प्रभिनयादि रूप अर्थ समाप्त हो जाना चाहिए। कोई [ व्याख्याकार ] तो प्रत्येक अंक में इस कालसे दुगना कालका परिमाण मानते हैं। [कारिकामें प्राए हुए ] 'निष्ठितार्था:' इससे उस अंककी कथा में साध्य फलका दूसरे अंक से सम्बन्ध न होनेसे अपनेमें ही अर्थ की समाप्ति हो जाय यह अभिप्राय है । [श्रर्थात् 'समवकार के तीनों अंकोंमेंसे प्रत्येक अंकके कथाभागकी समाप्ति उसमें हो जानी चाहिए] फिर भी महावाक्य में [अर्थात् सम्पूर्ण समवकार में] पूर्ण प्रबन्धके कथासे साध्य फलमें परस्पर सम्बद्ध होने चाहिए । प्रर्थात् सम्पूर्ण प्रबन्धसे साध्य फलके उपायभूत अर्थ वाले तीनों प्रङ्क होने चाहिए यह अभिप्राय है । [ इस प्रयोजनकी सिद्धिके लिए समवकारके प्रङ्कोंकी रजा इस प्रकारसे करनी चाहिए कि ] सबसे पहले प्रामुखके अनन्तर संक्षेपमें तीनों श्रोंके अर्थका उपक्षेण करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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