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'युगिति' योजन'
युक् ।
वल्याम्
"ऐन्द्रजालिकप्रवेशादारम्य - 'एको उण खेडओ तए अवस्सं पेक्खिदव्वो' [एकः पुनः खेलकस्त्वयावश्यं प्रेक्षितव्यः ] इति यावत् । अत्र हि यौगन्धरायण्न यदगीकृतं तन्निष्पादक हेतुसमागमः ।
सन्धिमपीति ।
नाट्यदर्पणम्
[ का० ६०, सू० १०२
श्रर्थनीय फलस्य हेतुस्तद्योगो व्यवसायः । यथा रत्ना
अन्ये तु 'व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः' इति पठन्ति । यथा वेणीसंहारेनून' तेनाद्य वीरेण प्रतिज्ञाभंगभीरुणा ।
बध्यते केशपाशस्ते स चास्याकर्षण क्षमः ॥ इति ।
एतच्च ‘संरम्भः शक्तिकीर्तनम्' इत्यनेनैव संगृहीतमिति । केचिदन्यतमाङ्गानङ्गीकारेण द्वादशाङ्गमेवैतं सन्धिमिच्छन्ति । एवं गर्भ
एतान्यवमर्श सन्धेस्त्रयोदशाङ्गानि ।
अथ निर्वहणमन्धेरङ्गानि लक्षयितुमुद्दिशति-
[सूत्र १०३ ] - सन्धि-निरोधो ग्रथनं निर्णयः परिभाषणम् । उपास्तिः कृतिरानन्दः समयः परिगूहनम् ॥ ६१ ॥
'युक' अर्थात् योजन। श्रर्थनीय फलका जो हेतु उसका योग 'व्यवसाय' [ कहलाता ] है । जैसे रत्नावली में - ऐन्द्रजालिकके प्रवेश से लेकर 'मेरा एक खेल श्रापको श्रवश्य देखना चाहिए' यहाँ तक [प्रर्थनीय फलका योग होनेसे व्यवसाय श्रङ्गका उदाहरण है ] । इसमें यौगंधरायणने [ उदयन तथा वासवदत्ताका सम्बंध करानेका ] जो निश्चय किया था उसके सम्पादक हेतुका समागम हो रहा है [श्रत एव यह 'व्यवसाय' नामक प्रङ्गका उदाहरण है ] ।
अन्य लोग तो " अपनी शक्तिका कथन करना 'व्यवसाय' [कहलाता ] है" ऐसा लक्षण करते हैं । जैसे वेरणीसंहार में-
"प्रतिज्ञाका भङ्ग न होने पावे इस भयसे वह वीर [भीमसेन ] निश्चय ही प्राज तुम्हारे केशपाशको बाँधेगा और जिस [दुःशासन] ने इसको खींचा था उसको मारेगा ।"
यहाँ 'बध्यते' यह पद बधार्थक तथा बंधार्थक दोनों धातुनोंसे समान रूपमें ही बनता है इसलिए उसका एक पक्षमें बाँधना और दूसरे पक्षमें मारना दोनों ही अर्थ होते हैं ।
[कुछ लोग 'व्यवसाय' का 'व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः' ऐसा लक्षण करते हैं] किन्तु यह "शक्तिका कथन करना संरम्भ [ श्रङ्ग कहलाता ] है" इस [ संरम्भ प्रङ्ग ] के भीतर ही श्रा जाता है [ श्रतः व्यवसायका यह लक्षरण उचित नहीं है ] ।
कुछ लोग [विमर्शसंधिके तेरह अङ्गों में से ] किसी प्रङ्गको न मानकर इस संधिके बारह अङ्ग ही मानते हैं । इसी प्रकार गर्भसंधि में भी [बारह प्रङ्ग हो मानते हैं ] । ये श्रवमर्शसंधिके तेरह अङ्ग हैं ॥ ६० ॥
निर्वहण सन्धि के चौदह अङ्ग
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अब निर्वहणसंधि के प्रङ्गोंके लक्षरण करने के लिए उनके नाम गिनाते हैं
[ सूत्र १०३ क ] ( १ ) संधि, (२) निरोध, (३) प्रथन, (४) निर्णय, (५) परिभाषण, (६) उपासना, (७) कृति, (८) श्रानन्द, (६) समय, (१०) परिग्रहन | ६१ |
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