________________
का० ६२-६३, सू० १०४-१०५ ] प्रथमो विवेकः
[ १७६ भाषणं काव्यसंहार-पूर्वाभाव-प्रशस्तयः । चतुर्दशाङ्गो निर्वाहः,
विशेषानुपादानात् सर्वाण्यप्येतानि प्रधानानि ॥६१॥ (१) अथ सन्धिः
[सूत्र १०४]-सन्धि/जफलागमः ॥६२॥ मुखसन्धौ न्यस्तस्य प्रारम्भावस्थाविषयीकृतस्य बीजस्य उद्घाटोन्मुख्याधैविकारैः फले फलागमावस्थायामागमन ढौकनं सन्धिः । यथा रत्नावल्याम--
__ वसुभूतिः-[ अग्निविद्रवानन्तरं सागरिकां निर्वर्ण्य ] बाभ्रव्य ! सुसहशीयं राजपुत्र्याः ।
बाभ्रव्यः--ममाप्येवमेव मनसि । इति ।
अत्र मुखे यदुप्त बीजं तन्निकटीभूतमिति । इदमङ्गमवश्यं निबन्धनीयम ॥६२।। (२) अथ निरोधः
[सूत्र १०५]-निरोधः कार्य मीमांसा । नष्टस्य कार्यस्य युक्तये यदन्वेषणं तनिरुद्धवस्तुविषयत्वान्निरोधः। यथा लितरामे लदमणेन बद्ध्वा पानीतो लवो यज्ञार्थं सीताप्रतिकृतिमुपकल्पितां रामसदसि दृष्ट वा स्वगतमाह
[सूत्र १०३ ख]-(११) भाषण, (१२) काव्योपसंहार, (१३) पूर्वभाव तथा (१४) प्रशंसा, निर्वहण [संधि] के ये चौदह अङ्ग होते हैं।
[अन्य संधियोंके समान इनमें गौण और मुख्यका] भेद न किए जानेसे ये सभी मुख्य प्रङ्ग हैं [इनमें कोई भी अङ्ग गौरण नहीं है] । ६१ ।
(१) अब 'संधि' [नामक निर्वहरणसंधिके प्रथम अङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र १०४]-बीजका फल रूप तक पहुंचना ‘संधि' [नामक प्रङ्ग कहलाता है । ६२॥
मुखसंधिमें आरोपित प्रारम्भावस्था बीजरूपका, उद्घाटन-पोन्मुख्य प्रादि विकारों के द्वारा फल अर्थात् फल-प्राप्तिको अवस्थामें आ जाना अर्थात् पहुँच जाना 'संधि' [नामक अङ्ग कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें
_ "वसुभूति-[अग्निदाहके उपद्रवादिके बाद सागरिकाको देखकर हे बाभ्रव्य ! यह तो राजपुत्रीके समान मालूम होती है। .
बाभ्रव्य-मेरे मन में भी यही बात है।
यहाँ मुखसंधिमें जिस [सागरिका प्राप्ति रूप] बोजका वपन किया गया था वह [प्राप्तिके अत्यन्त निकट पहुंच गया है । इस अङ्गकी रचना अवश्य ही करनी चाहिए।६२॥
(२) अब 'निरोध' [नामक निर्वहरणसंधिके द्वितीय अंगका लक्षण प्रादि कहते हैं]-- [सूत्र १०५]-कार्यका विचार करना 'निरोध' [कहलाता है।
विनष्ट कार्यके बनानेके लिए जो अनुसंधान करना वह निरुद्ध [विनष्ट] वस्तु-विषयक होनेसे 'निरोध' [कहलाता है। जैसे छलितराममें [अश्वमेधयज्ञका घोड़ा पकड़नेके कारण लक्ष्मण द्वारा बांधकर लाया हुआ लव. रामके सभा-भवनमें यज्ञके लिए बनाई हुई सीताकी सुवर्णमयी प्रतिमाको देखकर अपने मनमें कहता है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org