________________
का० ११०, स० १६४ ] . तृतीयो विवेकः प्राप्नोति । काव्ये नटेऽन्यत्र वा रसस्यासत्त्रात् । असतश्चापि प्रत्यये अहृदयस्यापि प्रतीतिः स्यात् । ततो विभावप्रतिपादककाव्यप्रतिपत्तेरनन्तरं प्रतिपत्तुरेव स्थायी रसो भवति । तद्धेतुत्वाच्च काव्यं रसवदिति । [७] १०६ ॥ अथ रसभेदकथनावसरेऽपि प्रस्तावागतानामनुभावादिसंज्ञानां विषयं लक्षयति[सूत्र १६४]-कार्य-हेतुः सहचारी स्थाय्यादेः काव्यवानि ।
अनुभावो विभावश्च व्यभिचारी च कीर्त्यते ॥[८]११०॥ स्थायिनां श्रादिशब्दाद् रसभावानां च षासम्भवं ये लोकसिद्धाः कार्य-हेतुसहचारिणः,ते काव्यवर्त्मनिनामनेयानभिनेय भेदाभन्ने यथासंख्यं अनुभाव-विभावव्यभिचारितंजामिः कीर्त्यन्ते । काव्यसंस्कारतिरस्कृतात्मभिः कदाचिल्लोकेऽप्येवं व्यवद्वियन्ते । तत्र अनु लिंगनिश्चयात् पश्वा भावयन्ति गमयन्ति लिङ्गिनं रसमित्यनुभावाः, स्तम्मादयः । वासनात्मतया स्थितं स्थायिनं रसत्वेन भवन्तं विभावयन्ति आविर्भावनाविशेषण प्रयोजयन्ति इति पालम्बन-उद्दीपनरूपा ललनोद्यानादयो विभावाः। रसोन्मुखं स्थायिनं प्रति विशिष्टेनाभिमुख्येन चरन्ति वर्तन्ते इति व्यभिचारिणः । आभिमुख्य रहता ही नहीं है। तो फिर उसकी प्रतीति ही कैसे हो सकेगी? और सामाजिकके भीतर] विद्यमान [रस] की प्रतीति माननेपर तो असहृदयोंकोभी होने लगेगी। इसलिए विभावादिके प्रतिपादक काव्यको समझनेके बाद प्रतिपत्ता सामाजिकके भीतर रहने वाला स्थायिभाव ही रस बन जाता है । और उसका कारण होनेसे काव्य रसवत् कहलाता है ॥ [७] १०६॥
अब रसके भेदोंके कथनका अवसर होनेपर भी प्रकरणमें पाए हुए अनुभाव प्रालि संज्ञाओंका विषय बतलाते हैं [अर्थात् अनुभाव आदिका लक्षण करते हैं ।
स्थायिभाव प्रादिके [ लोकसिद्ध ] कार्य, कारण और सहचारियोंको काव्यमार्गमें क्रमशः अनुभाव, विभाव-तथा व्यभिचारिभाव कहा जाता है ।[८]११०॥
स्थायिभावोंके, और आदि-शब्दसे रस तथा [रतिवादिविषया भावः प्रादि लक्षरणके प्रानुसार देवादि-विषयक रति-रूप] भावोंके जो लोकसिद्ध यथासम्भव कार्य, कारण और सहकारी होते हैं वे अभिनय और अनभिनेय दोनों प्रकारके काव्यमार्गमें क्रमशः अनुभाव, विभाव तथा व्यभिचारिभाव नामोंसे कहे जाते हैं, और काव्यसंस्कारसे प्रभावित लोगोंके द्वारा कभी-कभी लोकमें भी इसी प्रकार [अर्थात् अनुभाव प्रादि नामोंसे] कहे जाते हैं । अागे इन तीन शब्दों का अवयवार्थ दिखलाते हैं। उनमेंसे 'अनु' अर्थात् लिङ्गके निश्चयके बाद [रसको] भावित अर्थात् बोषित करने वाले होनेसे [कार्य रूप] स्तम्भ प्रादि [रसके कार्य] 'अनुभाव' कहलाते हैं। यह अनुनाव शब्दका अवयवार्थ हया। आगे विभाव शब्दका निर्वचन करते हैं। बासना रूपसे स्थित, रसरूपताको प्राप्त होनेवाले, [ रत्यादि ] स्थायिभावको विशेष रूपसे भावित करते हैं पार्थात् विशेष रूपसे प्राविर्भत करते हैं वे ललना और उद्यानादिरूप [रसके क्रमश: पालम्बन तथा उद्दीपन रूप [कारण भाव' कहलाते हैं। [माणे व्यभिचारिभाव शब्दका निर्वचन करते हैं। रसोन्मुख स्थाविभावकेप्रति विशेष प्रकार के प्राभिमुख्यसे चरण करनेवाले अर्थात् विद्यमान होनेवाले होनेसे 'त्यभिचारिभाव' कहलाते हैं। [ 'प्राभिमुख्येन चरन्ति'में] 'माभिमुख्य का अर्थ पोषकत्व है । [प्रागे व्यभिचारभाव शब्दका दूसरे प्रकारका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org