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का० २५, सू० २१ ] प्रथमो विवेकः
[ ५७ नीचप्रयुक्तत्वादेव च ग्राम्यार्थप्रायेण प्राकृतेन, प्रादिशब्दात् शौरसेन्यादिना प्रवेशको भवति । अप्रत्यक्षानर्थान् सामाजिकहृदये प्रवेशयतीति प्रवेशकः । केचित् प्रवेशकं प्रथमांकस्यादौ नेच्छन्ति । एताविति विष्कम्भक-प्रवेशको । नाटकादिचतुष्टयं नाटक-प्रकरण-नाटिका-प्रकरण्यः । नाटकादौ हि परिमितोपायेन बहुषु मुख्यावान्तरकार्येषु नृपादीनां तत्सहायानां चामात्यादीनां व्युत्पत्तिः क्रियते इति अत्रैव प्रभूतकार्यव्युत्पादको विष्कम्भक-प्रवेशको। न व्यायोगादिषु एकांकेषु तावदल्पवृत्तत्वेनाल्पकार्यत्वात् । बहक्केष्वपि समवकारस्य परम्परासम्बद्धाङ्कत्वात् , अपरेषान्तु कतिपय. दिनवृत्तत्वादिति । अङ्कास्यादीनि तु स्वल्पसूच्यत्वेन यथासम्भव रूपकान्तरेष्वपि भवन्ति ॥२शा में निश्चित रूपसे नीच पात्रोंका ही प्रयोग होता है । इसीसे दूसरा भाषाविषयक भेद भी पा जाता है। विष्कम्भकमें संस्कृत भाषा मुख्य रहती है किन्तु प्रवेशकमें प्राकृतभाषाका ही प्रयोग होता है। इसी बातको आगे लिखते हैं
___ नीच [पात्रों के द्वारा प्रयुक्त होनेके कारण ही प्राम्य [अशिष्ट अर्थसे युक्त प्राकृतके द्वारा, प्रादि शब्दसे [उनमें भी] शौरसेनी प्रादिके द्वारा प्रवेशक [का प्रयोग होता है । [आगे प्रवेशक शब्दको व्युत्पसि दिखलाते हैं। अप्रत्यक्ष प्रोंको सामाजिकोंके हृदयमें प्रविष्ट कराता है इसलिए 'प्रवेशक' [कहलाता है। कुछ [नाट्याचार्य] लोग प्रथम ग्रंक प्रादिमें इस [प्रवेशक] का प्रयोग नहीं मानते हैं। [यह विष्कम्भकसे इसका तीसरा भेद हुआ। 'एतौ' अर्थात् विष्कम्भक और प्रवेशक । नाटकादि चारमें [रहते हैं । इसमें नाटकावि चार से] १ नाटक, २ प्रकरण, ३ नाटिका और ४ प्रकरणी [इन चारका ग्रहण करना चाहिए। नाटकादिमें [अंक रूप] परिमित साधनोंके द्वारा मुख्य तथा अवान्तर [गौण] बहुत-से कार्योका परिज्ञान राजा और उसके सहायक मन्त्री प्राविको कराना होता है इसलिए इनमें ही विस्तृत अवान्तर कार्योका परिचय करानेके लिए ये विष्कम्भ और प्रवेशक [प्रयुक्त होते हैं । 'व्यायोग' प्रादि एकांकी [रूपक] में थोड़ा-सा ही कथाभाग होनेसे कम कार्य होनेके कारण [इन विष्कम्भक और प्रवेशकोंका प्रयोग] नहीं होता है। और अनेक अंकों वालोंमें भी 'समवकार' के अंकोंके परस्पर सम्बद्ध न होनेसे, तथा अन्योंमें कुछ दिनका ही वृत्तान्त होने से [प्रवेशक तथा विष्कम्भककी अावश्यकता नहीं होती है] यह अभिप्राय है। अंकारयादि [शेष तीन अर्थोपक्षेपक] तो अल्प वृतके सूचन करने योग्य होनेके कारण यथासम्भव [श्रावश्यकतानुसार अन्य रूपकोंमें भी प्रयुक्त होते हैं ।
इस प्रकार इस लक्षण में प्रवेशकके विष्कम्भक तथा अन्य अर्थोपक्षेपकोंसे जो भेद दिखलाए गए हैं वे मुख्य रूपसे निम्न प्रकार हैं--
१. विष्कम्भक में मध्यमपात्र भी प्रयुक्त होते हैं इसलिए संस्कृत भाषाका भी प्राश्रय लिगा जाता है। किन्तु प्रवेशकमें केवल नीचपाय ही होते हैं इसलिए उस में केवल प्राकृत भाषाका ही उपयोग होता है।
२. विष्कम्भका प्रयोग अङ्कके आदिमें भी प्रस्तावनाके बाद किया जा सकता है किन्तु प्रवेशकका प्रयोग प्रथम अंकमें नहीं होता है।
३. प्रङ्कास्य प्रादि अन्य पर्थोपक्षेपकोंका प्रयोग नाटिकादिमें भी हो सकता है किन्तु
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