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________________ ३५२ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १५२, सु० २२६ वाचिकः । सामाजिकानामाभिमुख्येन साक्षात्कारेण नीयते प्राप्यते अर्थोऽनेनेति अभिनयः । वाचां संस्कृत-प्राकृतादीनां सार्थिकानामर्थिकानां वा । यथाभावं क्रोध-अहङ्कारजुगुप्सा-उत्साह-विस्मय-हास-रति-भय-शोक - सुख-दुःख-मोह-लोभ-माया-असूया-शङ्काऽऽदीनां, वेपथु-स्तम्भ-रोमाञ्च-मूर्छा-वैवर्ण्य-प्रसादादीनां वा भावानामनतिक्रमेण । तथा च कवयः 'सक्रोधं' 'सावेगं' इत्यादीन्यनुकार्यभावप्रकाशकानि क्रियाविशेषणान्युपनिबध्नन्ति । तेनैकेनोक्तमपरस्य यथाभावं अनुवदतोऽनुवाद एव न वाचिकोऽभिनय इति । अनुक्रिया च वागादीनां तदध्यवसायवशात् न पुनर्वस्तुतः । रामादेरनुकार्यस्य नटेन प्रेक्षकैर्वा स्वयमदृष्टत्वात् । अनुकर्ता ह्यनुकार्यमदृष्ट्वा नानुकतु मलम । प्रेक्षकोऽपि चादृष्टानुकार्यो नानुकतुरनुकर्तृत्वमनुमन्यते । तदयं नटो रामादेश्चरितं कविनिबद्धमधीत्य अत्यन्ताभ्यासवशतः स्वयं दृष्टमनुमन्यमानो अनुकरोमि इत्यध्यवस्यति । परमार्थस्तु लोकव्यवहारमेवायमनुवर्तते । प्रहृष्टोऽपि हि रामेण रुदिते रोदिति, न तु हसति । विषण्णोऽपि च हसिते हसति, न तु रोदितीत्यादि। प्रेक्षकोऽपि रामादिशब्दसंकेतश्रवणादतिहृद्यसंगीतकाहितवैवश्याच्च स्वरूपहै। [प्रागे अभिनय शब्दका निर्वचन करते हैं ] । प्राभिमुख्यसे अर्थात् साक्षात्कारात्मक रूप से [अभिनेतव्य अर्थ जिसके द्वारा सामाजिकोंके पास पहुँचाया जाता है वह [अभिनीयते इस निर्वचनके अनुसार अभिनय कहलाता है । वचनोंका अर्थात् संस्कृत अथवा प्राकृत भाषामय वचनोंका प्रथवा सार्थक या अनर्थक वचनोंका। [वक्ताके] मनके अनुसार 'यथाभावं' अर्थात् क्रोध महङ्कार, जुगुप्सा, उत्साह, विस्मय, हास्य, रति, भय, शोक, सुख-दुःख, मोह-लोभ माया, असूया, शका प्रादि [ भावों ] का, तथा कम्प, स्तम्भ, रोमाञ्च, मूळ, वैवर्ण्य तथा प्रसन्नता प्रादि रूप भावोंका अतिक्रमण किए बिना [ अभिनय करना 'यथाभावमनुक्रिया' कहलाती है । इसीलिए कविगण 'सावेग' सक्रोध' इत्यादि अनुकार्य भावके प्रकाशक पदोंका प्रयोग करते हैं। इसलिए एकके द्वारा कहे गएका, दूसरेके द्वारा यथोचित भावका अनुकरण किए बिना जो [अनुवाद करना] कथन करना है वह केवल 'अनुवाद' कहलाता है उसको वानिक अभिनय नहीं कहा जाता है। क्योंकि वाचिक अभिनयमें यथाभावानुक्रिया भावोंका अनुकरण प्रावश्यक है । और वारणी प्रादिका अनुकरण [यह रामका कथन है] इस प्रकारके निश्चयके कारण होता है वास्तविक रूपमें नहीं। क्योंकि नटने अथवा प्रेक्षकोंने किसीने भी अनुकार्य रामादिको स्वयं नहीं देखा है । अनुकरण करने वाला [नट] अनु कार्य [रामादि] को देखे बिना उसका अनुकरण करने में समर्थ नहीं हो सकता है । और प्रेक्षक भी अनुकार्यको देखे बिना अनुकरण करने वालेको अनुकर्ता नहीं मान सकता है। इसलिए यह नट कविके द्वारा निबद्ध राम आदिके चरित्रको पढ़कर अत्यन्त अभ्यासके द्वारा स्वयं देखा जैसा मान कर 'मैं [इस समय उसका अनुकरण कर रहा हूँ' ऐसा निश्चय करता है [इसी अध्यवसायके कारण उसके व्यापारको अनुकरण कहा जाता है] वास्तवमें तो वह [रामके व्यापार का नहीं अपितु] लोक-व्यवहारका ही अनुकरण करता है। क्योंकि स्वयं प्रसन्न होनेपर भी रामके रोनेपर रोता है हँसता नहीं है। और स्वयं दुःखी होनेपर भी [राम प्रादिके] हंसने पर हंसता है, रोता नहीं है। इत्यादि और प्रेक्षक भी [ नटके विषय में ] राम प्रावि शब्द-संकेतको समझने तथा अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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