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________________ का० १५१, सू० २२४-२६ ] तृतीयो विवेकः [ ३५१ (७) अथ स्वेदः[सूत्र २२४]-स्वेदो रोमजलस्रावः श्रमादेयंजनग्रहैः । आदिशब्दाद् भय-हर्ष-लज्जारोग-ताप-ग्रह-दुःख-धर्म-व्यायामादेविभावस्य ग्रहः । बहुवचनाद् वाताभिलाष-स्वेदापनयनादिभिरप्यभिनेतव्य इति । (८) अथ वैवर्ण्यम्[सूत्र २२५]-छायाविकारो वैवर्ण्य क्षेपादेविनिरीक्षणः ॥ ॥ [४६] १५२॥ छाया शोभा तस्या विकारो विरूपत्वम् । पस्तिरस्कारः। आदिशब्दात् सन्ताप-भय-क्रोध-व्याधि-शीत-श्रम-तीव्रांशुकरादेर्विभावस्य ग्रहः। बहुवचनात् नखनिस्तोदन-ब्रीडादिभिरप्यभिनेतव्यमिति ।। [४६] १५१॥ अथ रसभावानन्तरोद्दिष्टस्याभिनयस्यावसरः । स च वाचिक-आङ्गिक-सात्त्विक आहार्यभेदैश्चतुर्की । तत्र प्रथम वाचिकं लक्षयति [सूत्र २२६] -वाचिकोऽभिनयो वाचां यथाभावमनुक्रिया। वागनुकार्या प्रयोजन हेतुरस्येति 'प्रयोजनम्' हैम० ६-४-११७] इति 'इकणि' (७) अब स्वेद [का लक्षण करते हैं] [सूत्र २२४] -श्रम माविके कारण उत्पन्न होनेवाला रोमजलका स्राव 'स्वेद' कहलाता है। और पंखा हाथ में लेने आदिके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है। प्रादि शब्दसे भय, हर्ष, लज्जा, रोग, सन्ताप, ग्रह, दुःख, व्यायाम प्रादि कारणों [विभावों का ग्रहण होता है। बहुवचनसे हवाको इच्छा, पसीना पोंछना प्रादि अनुभावोंके द्वारा भी उसका अभिनय किया जाता है। (८) प्रब विवर्णता रूिप अनुभावका लक्षरण करते हैं]-- [सूत्र २२५]-अपमान प्रादिके कारण उत्पन्न होनेवाला मुखको कान्तिका विकार 'वैवर्य' कहलाता है । इधर-उधर देखने प्रादिके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है। .... ।[४६] १५१ । छाया अर्थात् [मुखको] शोभा। उसका विकार अर्थात् बिगड़ जाना। क्षेप अर्थात् तिरस्कार । प्रादि शब्दसे सम्ताप, भय, क्रोध, रोग, शीत, थकावट और धूप आदि विभावों का ग्रहण होता है । बहुवचनसे नाखून चबाने और लज्जा प्रादिके द्वारा भी इसका अभिनय किया जाता है यह सूचित किया है ॥ [४६] १५१ ॥ अब रस और भावोंके मनन्तर कहे हुए अभिनय [के निरूपण] का अवसर प्राता है । वह [अभिनय] वाचिक, प्राङ्गिक, सात्त्विक और प्राहार्य [अर्थात् वेष-भूषादि रूप] चार प्रकारको होता है। उनमेंसे सबसे पहले वाचिक [अभिनय] का लक्षण करते हैं [सूत्र २२६] -[ वक्ताके ] भावके अनुसार [ उसको ] वाणीका अनुकरण वाचिक [अभिनय] कहलाता है। अनुकरण को जाने वाली वाणी [का अनुकरण] जिसका प्रयोजन हेतु है। वह हेम 'चाहत' हेम व्याकरणके 'प्रयोजनम्' इस सूत्रसे 'इकण' प्रत्यय होकर 'वाचिक' पर बमता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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