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नाट्यदर्पणम [ का० ६६-६७, सू० ११७ व्युत्पाद्योऽपि च प्रकरणे मध्यमप्रकृतिरेव । नेतृचरितस्यापि तथाभूतत्वादिति ।
___ 'दास-श्रेष्ठि-विटैर्यक्तम्' इति । 'दासो' जीवितावधि वेतनक्रीतो, बाल्यात् प्रभृति पोषितो वा । 'श्रेष्ठी' वणिक्प्रधानम् । 'विटो' धूर्तः । तत्र कन्चुकिस्थाने दासः। अमात्यस्थाने श्रेष्ठी । विदूषकस्थाने विटः । उपलक्षणं चैतत् , तेनापरमपि चाटुकार-सहायादिकं वणिगाद्यौचित्येन निबन्धनीयम् ।२ 'क्लेशाध्यम्' इति दुखदीप्तम् । अपायशतान्तरितफलत्वादिति एतावल्लक्षणम् ।
तच्चेति, उक्तलक्षणं 'प्रकरणं' सप्तभेदम् । 'इनो' नायकः । 'फलं' मुख्यसाध्यम् । 'वस्तु' फलसाधका उपायाः। एतेषां एक-द्वि-त्रिविधानेन सप्तभेदं 'प्रकरणम' । तत्र नेतुः प्रकल्पने तदितरयोश्चाकल्पने एको भंगः। एवं फल-वस्तुनोरपि । एवमेककल्पविधाने त्रयो भंगाः । तथा नायक-फलयोः, नायक-वस्तुनोः, फलवस्तुनोर्वा कल्पने शेषस्यैकस्य चाकल्पने त्रयो द्विकभंगाः। नायक-फल-वस्तूनां त्रयाणामपि समुदितानामपि कल्पने एको भंगः । एवं सर्वमेलनेन' सप्तधा प्रकरणमिति ॥ १-२ [६६-६७] ।।
यह कुमारचन्द्रगुप्तका वचन विनय-रहित या शिष्टता-रहित है। उत्तम प्रकृतिके पात्रों में इस प्रकारके वचनोंका प्रयोग उपयुक्त नहीं होता है। किन्तु यहाँ वेश्या माधवसेनाके नायिका होने के कारण ही इस प्रकारके वचनके प्रयोगकी संगति लगाई जा सकती है । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ।
नायकके चरित्रके भी [उस प्रकारके अर्थात्] मध्यम-प्रकृतिका होनेके कारण 'प्रकरण'में [व्युत्पाद्य अर्थात् सामाजिक भी मध्यम-प्रकृतिके ही होते हैं।
आगे कारिकामें पाए हुए 'दास-श्रेष्ठि-विटयुक्तम्' की व्याख्या करते हैं___ 'वास-श्रेष्ठि-विटयुक्तम्' [इसका यह अभिप्राय है कि] जीवन-पर्यन्तके लिए वेतनसे क्रय किया हुआ अथवा बचपनसे पाला हुमा 'दास' होता है । वरिणकोंका प्रधान, अथवा प्रधान वरिणक 'श्रेष्ठी' कहलाता है । 'विट' [का अर्थ] धूर्त है। उनमेंसे [नाटकके] कञ्चुकीके स्थानपर [प्रकरणमें] 'दास' [को समझना चाहिए] । अमात्यके स्थानपर श्रेष्ठी और विदूषकके स्थानपर विट [का उपयोग होता है । [दास-श्रेष्ठि-विटयुक्तं] यह [वचन] उपलक्षण रूप है । इसलिए वरिणक् प्रादि [नायकों] के औचित्यके अनुसार चाटुकार [चापलूस] सहायक प्रावि अन्य [पात्रों का भी वर्णन करना चाहिए । 'क्लेशाव्यम्' इसका 'दुःख-प्रधान' यह अर्थ है। क्योंकि उसका फल सैकड़ों कष्ट भोगनेके बाद प्राप्त होता है। [इसलिए 'प्रकरण' दुःखप्रधान रूपक होता है। यहां तक [अर्थात ६७वीं कारिकाके पूर्वाद्ध भाग तक प्रकरणका] लक्षरण कहा है [मागे उसके भेद दिखलाते हैं।
___ आगे ६७वीं कारिकाके उत्तरार्ध भागकी व्याख्या करते हैं। इसमें 'कल्प्येन-फलवस्तूनां' इस पदमें 'कल्प्येन' का पदच्छेद 'कल्प्य+इन' यह किया जाना चाहिए । इस प्रकार का पदच्छेद करके ही उसका अर्थ आगे दिखलाते हैं
और 'वह' अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणवाला 'प्रकरण' सात प्रकारका होता है । 'इन' [शब्दका अर्थ] नायक है। फल [शब्दका अर्थ] मुख्य साध्य है। और फलके साधक उपाय 'वस्तु' [कहलाते हैं। इनमेंसे एक, दो, या तीनके [कल्पित होनेके विधानसे 'प्रकरण'के सात १. परिणगायौ विधव प्र०। २. क्लेशाद्यप्र०। ३. सर्वमीलनेन ।
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