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________________ १५२ ] नाट्यदपम् अत्र ध्रुवदेव्यभिप्रायस्य चन्द्रगुप्तेन निश्चयः । तथा रत्नावल्याम् - हिया सर्वस्यासौ हरति विदितास्मीति वदनं द्वयोर्दष्टवालापं कलयति कथामात्मविषयाम् । सखीषु स्मेरासु प्रकटयति वैलक्ष्यमधिकं, प्रिया प्रायेणास्ते हृदयनिहितातंक विधुरा ॥ श्रत्र राज्ञा भाव्यमानायाः सागरिकायाः स्वरूपावस्थानिर्णयः कृतः । अन्ये तु - ' क्रमः सश्चिन्त्यमानाप्तिः' इत्याहुः । यथा रत्नावल्यामवत्सराजस्य सागरिकासमागममभिलषतो विदूषकेणोपवने योजनम् । अन्ये तु भविष्यदर्थतत्त्वोपलब्धिं क्रममिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे"कृपः - राजन दुर्योधन ! महान् खलु द्रोणपुत्रेण वोदुमध्यवसितः समरभारः । भवता च कृतपरिकरोऽयमुच्छेत्तु लोकत्रयमपि समर्थः । किं पुनरेतद् युधिष्ठिरबलम् ।" इति । (७) अथोद्वेग: [ सूत्र ८३ ] - उद्वेगो भीः चौर नृप अरि-नायिकादिभ्यो भयमुद्वेगः । यथा श्रमात्यशंकुकविरचिते चित्रोत्पलावलम्बित के प्रकरणे पश्र्चमेऽङ्के [ का० ५४, सू० ८३ यहाँ ध्रुवदेवीके अभिप्रायका चन्द्रगुप्तके द्वारा निश्चय [होनेसे 'क्रम' का उदाहरण ] है । इसी प्रकार रत्नावलीमें "सब लोगोंको [मेरा वत्सराजके प्रति प्रेम] विदित हो गया है ऐसा समझ कर [ सागfrer] सबसे मुख छिपाती है, [कहीं] दो जनोंको बात करते देखकर यह समझती है कि ये लोग मेरे विषयमें ही बात कर रहे हैं । सखियोंके मुस्करानेपर और भी अधिक शर्मा जाती है । इस प्रकार प्रिया [ सागरिका ] प्रायः हृदय में बैठे हुए भयसे पीड़ित रहती है ।" इसमें राजाने भाव्यमान सागरिकाके स्वरूप तथा श्रवस्थाका निर्णय किया है [ इस लिए यह भी 'क्रम' नामक श्रङ्गका उदाहरण है ] । अन्य लोग तो 'सञ्चिन्त्यमान अर्थकी प्राप्तिको 'क्रम' कहते हैं। जंके रत्नावलीमें सागरिका समागमको चाहने वाले वत्सराजको उपवन में विदूषक के द्वारा [ सागरिकाके साथ ] मिला देना । [ योजना सचिन्त्यमान श्रर्थकी प्राप्ति रूप होने से 'क्रम' अङ्ग हैं) । अन्य लोग श्रागे होने वाले अर्थतत्त्वके ज्ञानको 'क्रम' कहते हैं । जैसे वेणीसंहार में"कृप - हे राजन् दुर्योधन ! द्रोणके पुत्र [ अश्वत्थामा] ने महान् युद्धके भारको ग्रहरण करनेका निश्चय किया | आपके द्वारा [सेनापति पदपर] प्रभिषिक्त किए जानेपर वह तीनों लोकों का नाश करनेमें भी समर्थ हो सकता है। इस युधिष्ठिरकी सेनाकी तो बात ही क्या है । (७) उद्वेग अब 'उद्वेग' [नामक गर्भसन्धिके सप्तम श्रङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं।]-- [ सूत्र ८३ [ --भय [ का नाम ] 'उद्वेग' है । चौर, राजा, शत्रु प्रथवा नायिका श्रादिसे भय 'उद्वेग' [कहलाता ] है । जैसे प्रमात्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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