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नाट्यदर्पणम् [ का० १३४. सू० १९३ (१०) अथावेगः[सूत्र १९२]-प्रावेगः सभ्रम्मोऽतर्यात् विकर्ताऽङ्ग अनो-गिराम् ॥
[३२] १३४॥ __ सम्भ्रमः संक्षोभः । अतक्यं अचिन्तितोपनतमिष्टमनिष्ट वा। तत्रेष्टं देवतागुरु-मान्य-वल्लभ-सम्पच्छ्रवण-दृष्ट्यादि। अनिष्टमग्नि-भूकम्पायुत्पात-वात-वर्ष-कुअरचोर-सामनोज्ञश्रवणदर्शनादि। तत्राभ्युत्थान-पुलकालिंगनवस्त्रादिप्रदानादयः प्रियाः, सांगलस्ततामुखवैवर्ण्य-पिण्डीभाव-प्रधावन-आकुलनेत्रता- त्वरितापसरण - पश्चादवलोकन-शस्त्रादिग्रहण-उर्वीपतन-कम्प-वेद-स्तम्भादयो अप्रियांश्चांगिकाः । हर्ष-विस्मयादयः प्रियाः, शंका-विषाद-भयादयोऽप्रियाश्च मानसाः । स्मृति-चाटुकाराशंसावाक्यादयः प्रियाः, क्रन्दन-परिदेवन-असम्बन्धवचनादयश्चाप्रिया वाचिका विकारा यथायोग प्रियाप्रियातर्त्यवस्तुजावेगस्यानुभावाः । सर्वेऽप्येते विकारा उत्तमस्य स्थैर्यानुविद्धाः, नीचस्य तु चापलानुविद्धा इति ॥ [३२] १३४॥
(११) अथ मतिः[सूत्र १९३]-प्रतिभानं मतिः शास्त्र-तर्काद् भ्रांतिच्छिदादिकृत् । बचन, मार-पीट करने और बध-बन्धन प्राविका ग्रहण होता है। .
(१०) प्रब पावेग [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[सूत्र १४२]-अकस्मात उपस्थित हो जाने वाले [इष्ट या अनिष्ट] से उत्पन्न सोम 'मावेग' कहलाता है । और शरीर, मन तथा वाणीमें विकारका जनक होता है। [३२]१३४॥
'सम्भ्रम' अर्थात् संक्षोभ । 'प्रतयं' अर्थात् जिसको सोचा भी नहीं था इस प्रकारके इष्ट या अनिष्टका अकस्मात् उपस्थित हो जाना । उसमें [प्रतोपनत] 'इष्ट' से देवता, गुरु, माग्य, प्रिय अथवा सम्पत्तिकी प्राप्तिका सुनना प्रादि [गृहीत होता है] । 'अनिष्ट से भाग लग जाना, भूकम्प प्रादिका उत्पात, आंधी-पानी, हाथी, चोर, सांप और अरुचिकर बातका सुनना या [भरुचिकर दृश्यका] देखना प्रादि [गृहीत होता है] । उनमें भी अभ्युत्थान रोमाध, प्रालिङ्गन पोर वस्त्र-प्रदान प्रादि प्रिय, और सारे अङ्गोंका शिथिल हो जाना, मुख पीला हो जाना, पिण्डीभाव, दौड़ना, नेत्रोंमें घबराहट दीखना, जल्दीसे हट जाना, लोट-लौटकर पीछे देखना, शस्त्रादि उठाना पृथिवीपर गिर जाना, कम्पन, स्वेद और शरीरको निष्क्रियता प्रावि अप्रिय अङ्गिक [अनुभव होते हैं। हर्ष-विस्मय प्रादि प्रिय, शंका, विषाद, भय प्रादि प्रप्रिय मानसिक [अनुभव होते हैं । प्रशंसा, चापलूसी शुभाकांक्षाके वाक्य प्रादि प्रिय, तपा पौर असम्बद्ध प्रलाप करना प्रादि वाचिक विकार, यथायोग्य प्रिय-अप्रिय रूप [प्रतक्यं रोना-विलाप करना अर्थात् अकस्मात् उपस्थित होने वाले वस्तुओंसे उत्पन्न प्रावेगके अनुभाष होते हैं । ये सभी विकार उत्तम पुरुषों में धैर्यसे युक्त और नीच [पात्रों] में चपलतासे युक्त रहते हैं । [३२] १३४ ॥
(११) प्रब मति [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते है? -
[सूत्र १४३]-शास्त्र [के चिन्तन] तथा सकसे उत्पन्न होने वाली नवनवोन्मेशशालिनी प्रज्ञा 'मति' कहलाती है। और वह भ्रमोच्छेदन माविको जननी होती है।
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